Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 241
________________ 212 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा सके। वे तीर्थकर अरिष्टनेमि के परम भक्त थे। अरिष्टनेमि से श्रीकृष्ण, वय की दृष्टि से ज्येष्ठ थे तो आध्यात्मिक दृष्टि से अरिष्टनेमि ज्येष्ठ थे। " एक धर्मवीर थे तो दूसरे कर्मवीर थे, एक निवृत्ति प्रदान थे तो दूसरे प्रवृत्ति प्रदान थे। अतः जब भी अरिष्टनेमि द्वारका में पधारते तब श्रीकृष्ण उनकी उपासना के लिए पहुँचते थे। अन्तकृद्दशा, समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, स्थानांग, निरयावलिका, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, प्रभृति आगमों में उनका यशस्वी व तेजस्वी व्यक्तित्व उजागर हुआ है। आगमिक व्याख्या-साहित्य में नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीका ग्रंथों में उनके जीवन से संबंधित अनेक घटनाएँ हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के मूर्धन्य मनीषियों ने कृष्ण के जीवन्त प्रसंगों को लेकर शताधिक ग्रंथों की रचनाएँ की है। भाषा की दृष्टि से वे रचनाएँ प्राकृत, अपभ्रंश संस्कृत, पुरानी गुजराती, राजस्थानी व हिन्दी भाषा में है। प्रस्तुत आगम में श्रीकृष्ण का चहुँमुखी व्यक्तित्व निहारा जा सकता है। वे तीन खण्ड के अधिपति होने पर भी माता-पिता के परमभक्त थे। माता देवकी की अभिलाषापूर्ति के लिए वे हरिणगमेषी देव की आराधना करते हैं। भाई के प्रति भी उनका अत्यन्त स्नेह है। भगवान् अरिष्टनेमि के प्रति भी अत्यन्त निष्ठावान है। जहाँ एक ओर वे रणक्षेत्र में असाधारण वीरता का परिचय देकर रिपुमर्दन करते हैं, वज्र से भी कठोर प्रतीत होते हैं, वहीं दूसरी ओर एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो जाता है और उसके सहयोग के लिए स्वयं भी ईंट उठा लेते हैं। द्वारका विनाश की बात सुनकर वे सभी को यह प्रेरणा प्रदान करते हैं कि भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रवज्या ग्रहण करो। दीक्षितों के परिवार के पालन-पोषण आदि की व्यवस्था मैं करूंगा। स्वयं की महारानियाँ, पुत्र-पुत्रियाँ और पौत्र जो भी प्रव्रज्या के लिए तैयार होते हैं उन्हें वे सहर्ष अनुमति देते हैं। आवश्यकचूर्णि में वर्णन है कि वे पूर्णरुप से गुणानुरागी थे। कुत्ते के शरीर में कुलबुलाते हुये कीड़ों की ओर दृष्टि न डालकर उसके चमचमाते हुए दाँतों की प्रशंसा की, जो उनके गुणानुराग का स्पष्ट प्रतीक है। प्रस्तुत आगम के पाँच वर्ग तक भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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