Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 139
सात और दस कुलकरों की उत्पत्ति के प्रसंग में दिखाई पड़ती है। स्वाभाविक रुप से या तो सात कुलकर उत्पन्न हुए थे और होंगे, या दस कुलकर उत्पन्न हुए थे और होंगे। अतः भिन्न-भिन्न संख्याओं के प्राप्त होने का कोई औचित्य नहीं है। 23 वें तीर्थंकर पार्व के 8 गणधरों की संख्या में भी स्थानांग एवं समवायांग में अन्तर दिखाई पड़ता है।
इसके अतिरिक्त अधिकांश पुनरावृत्त प्रकरणों में अन्तिम विवरण पूर्णता लिये हुए है अतः तत्सम्बद्ध शेष विवरण निरर्थक या अनावश्यक प्रतीत होते हैं और ग्रन्थ के आकार में वृद्धिमान करने वाले हैं।
सन्दर्भ :1. पं बेचरदास दोशी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-1, पार्श्वनाथ
विद्यापीठ (स. 6) वाराणसी- 5, द्वि.सं. 1972, पृष्ठ 213। 2. 1/6-7, 2/11-14, 3/17-19, 4/22-23, .... 33/217-8
समवायांग, सम्पा मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन, समिति, ब्यावर। 3. सूत्र 1/254-256, 2/463-465, 3/541-542, 4/659/662,
5/239-240, 6/129-132,7/154-155, 8/127-128, 9/73 एवं 10-174-178। * स्थानांग सूत्र, सम्पा मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर (जिनागम ग्रंथमाला सं.-7) 1981। ...4. तिविधा लोगठिती पण्णत्ता, तं जहा – आगासपइट्ठिए वाते, वातपइट्ठिए
उदही, उदही पइट्ठिया पढवी, - 3/2/3/9, स्थानांग।
चउव्विहा..... पुढविपतिट्ठिया, तसा थावरा पाणा – 4/2/259, स्थानांग। छव्विहा.... अजीवा जीवपतिट्ठिता, जीवा कम्मपतिट्टिता – 6/36 स्थानांग। अट्टविधा – अजीवा जीवसंगहीता-जीवाकम्मसंगहीता-8/14, स्थानांग।
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