Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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168 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
आगम वर्गीकरण :- वर्तमान में हमारे समक्ष आगमों के स्पष्ट एवं वर्गीकृत रुप उपस्थित हैं जबकि प्राचीन काल में ऐसा स्पष्ट स्वरुप नहीं था । आगमों का यह वर्गीकरण कब से प्रारंभ हुआ था इसे किसने शुरू किया इस संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ कहना ठीक नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए पं. दलसुख मालवणिया जैन साहित्य के वृहद इतिहास नामक पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं“साम्प्रतकाल में श्वेताम्बरों में आगमों का जो वर्गीकरण प्रसिद्ध है वह कब शुरू हुआ, या किसने शुरू किया, यह जानने का निश्चित साधन उपस्थित नहीं है। जहाँ तक जैन वाङ्गमय का प्रश्न है यह दो रूपों में विभाजित रहा है :
1.
महावीर के पूर्व का साहित्य ।
2.
महावीर तथा उनके परवर्ती आचार्यों के युग का साहित्य |
महावीर के पूर्व जो साहित्य रचे गए उन्हें " पूर्व" कहा जाता है और इनकी कुल संख्या 14 है जबकि महावीर के समय या उनके परवर्ती आचार्यों द्वारा जो साहित्य रचे गए हैं उन्हें आगम कहते हैं। पूर्व साहित्य तो विच्छिन्न हो गया है लेकिन जो आगम हैं उनका सम्यक् रुप से वर्गीकरण हुआ है।
आगमों का विभाजन दो रूपों में हुआ है'.:
(क) अंग-प्रविष्ट एवं
(ख) अंग बाह्य
अंग प्रविष्ट के अंतर्गत 12 अंगों का समावेश हुआ है जबकि शेष ग्रंथ अंग-बाह्य माने गए हैं। एक अन्य दृष्टि से आगमों के सुत्तागम, अत्थागम, अंतारागम, अणंतरागम - ये भेद भी किए गए हैं। यह विभेद लोकोत्तर आगम के भेद हैं। इसके संबंध में भगवान महावीर ने यह स्पष्ट किया है कि उनके उपदेश का संवाद भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश से है तथा यह भी शास्त्रों में कहा गया है कि पार्श्व और महावीर के आध्यात्मिक संदेश में मूलतः कोई भेद नहीं है। बाह्याचार में कुछ भेद भले ही दिखता हो।" अनुयोगद्वारसूत्र में ही आगमों के तीन भेद भी मिलते हैं 2सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम। आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल, छेद के रुप में जाना जाता है। आगम के इस वर्गभेद में उपांग, मूल, छेद का प्रारंभ
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