Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
102 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
तथा छठे आत्मा को भी मानते हैं तथापि वे पंचमहाभूतिकों से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि सांख्य दर्शन आत्मा को निष्क्रिय मानकर पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को ही समस्त कार्यों का कर्ता मानता है। आत्मा को सांख्य अकर्ता मानता है। सांख्य पुरुष या आत्मा को प्रकृति द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोक्ता और वृद्धि द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को प्रकाशित करता है। इसलिए "से किणविमाणे, हणं घायमाणे ..........णत्थित्थ दोसो'"16 अर्थात सांख्य के आत्मा को भारी से भारी पाप करने पर भी उसका दोष नहीं लगता क्योंकि वह निक्रिय है। शास्त्रकार कहता है कि यह मत निःसार एवं युक्ति रहित है क्योंकि अचेतन प्रकृति विश्व को कैसे उत्पन्न कर सकती है जो स्वयं ज्ञान रहित एवं जड़ है। तथा सांख्य की दृष्टि में जो वस्तु है ही नहीं वह कभी नहीं होती और जो है उसका अभाव नहीं होता तो जिस समय प्रकृति और पुरूष दो ही थे उस समय यह सृष्टि तो थी ही नहीं फिर यह कैसे उत्पन्न हो गयी। . इसका कोई उत्तर सांख्य के पास नहीं है। इस प्रकार लोकायतों का पंचमहाभूतवाद एवं सांख्यों का आंशिक पंचमहाभूतवाद दोनों ही मिथ्या हैं।
एकात्मवाद :- एकात्मवाद को मानने वाले वेदान्ती हैं क्योंकि वे ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त पदार्थों को असत्य मानते हैं एवं चेतन-अचेतन सबको आत्मा या ब्रह्म रुप ही मनते हैं।" शास्त्रकार के अनुसार नाना रुप में भासित पदार्थों को भी एकात्मवादी दृष्टान्त द्वारा आत्मरुप ही सिद्ध करते हैं, जैसे पृथ्वी समुदाय रुप पिण्ड एक होते हुये भी नदी, समुद्र, पर्वत, नगर, घर आदि रुपों में नाना प्रकार का दिखाई देता है।। आत्मा या ब्रह्म एक ही है, वह अद्वितीय है। सूत्रकृतांग एकात्मवाद को युक्तिहीन बताते हुए उसका खण्डन करता है। (i) उसके अनुसार एकात्मवाद में एक के द्वारा किये गये शुभ या अशुभ
कर्म का फल दूसरे सभी को भोगना पड़ेगा जो कि अनुचित एवं अयुक्ति युक्त है। एकात्मवाद में एक के कर्मबन्धन होने पर सभी कर्म बंधन से बद्ध
और एक के मुक्त होने पर सभी मुक्त हो जायेंगे और इस प्रकार बंधन एवं मोक्ष की अव्यवस्था हो जायेगी।
(ii)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org