Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 113
त्रस पदार्थ में उत्पन्न होता है, पुरुष मरणोपरान्त पुरुष एवं स्त्री मरणोपरान्त स्त्री होती है। आचारांग-स्पष्टतः कहता है कि स्थावर जीव त्रस के रुप में, त्रस जीव स्थावर के रुप में अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अतः उनका मत समीचीन नहीं है।
निष्कर्ष :- इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग में भगवान महावीर कालीन भारत के जो अन्य विभिन्न दार्शनिक मत थे उन सबके विचारों का खण्डन कर जैन दर्शन के सिद्धान्तों की स्थापना की गयी है। उस समय प्रचलित ऐसा कोई मतवाद नहीं है जिसे सूत्रकार की पैनी दृष्टि ने स्पर्श न किया हो। चाहे व लोकायतों का मत हो, बौद्धों का मत हो, सांख्य, योग, नैयायिक, मीसांसक तथा वेदान्तियों का मत हो, सूत्रकार ने सभी मतवादों का कुशल समावेश कर उनकी तर्कप्रवण मीमांसा की है। यद्यपि सूत्रकार ने किसी भी सम्प्रदाय विशेष का उल्लेख नहीं किया है, केवल उनके दार्शनिक मन्तव्यों को ही आधार मानकर परपक्ष निरसन एवं स्वपक्ष मण्डन किया है। शैली बहुत कुछ उपनिषदों की है। तथा किन्हीं अर्थों में बौद्धों के ब्रह्मजालसुत्त की तरह है। सम्प्रदायों का स्पष्ट नामोल्लेख न मिलने का कारण बहुत कुछ सीमा तक उन-उन मतवादों का उस समय पूर्णरुपेण विकसित न होना माना जा सकता है। बाद के टीकाकारों एवं नियुक्तिकारों ने इन दार्शनिक मन्तव्यों का सम्प्रदाय विशेष सहित नामोल्लेख किया है। सूत्रकृतांग में यद्यपि विभिन्न मतवादों के परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन की प्रतिष्ठा की गयी है, परन्तु यह एक शुरूआत ही थी। टीकाकार एवं नियुक्तिकारों की आलोचनाएं अपेक्षाकृत अधिक प्रौढ़ है एवं तर्कानुप्रणित हैं। जहाँ तक इसमें अन्तर्निहित दार्शनिक विवेचना का प्रश्न है, सूत्रकार ने जिन मतवादों का उल्लेख किया है उनके सिद्धान्तों को जैन दर्शन मान्य अनेकान्तवाद एवं कर्मवाद की कसौटी पर कसते हुए यही बताने का प्रयास किया है कि चाहे वह लोकायतों का शरीरात्मवाद हो, नियतिवादियों का नियतिवाद हो या वेदान्त दर्शन का कूटस्थ आत्मवाद हो- कोई भी दर्शन हमारे सतत् अनुभव रुप व्यक्तित्व की एकता एवं चेतनामय जीवन की जो सतत् परिवर्तनशीलता है की, सम्पूर्ण दृष्टि से समुचित व्याख्या नहीं कर पाता। यह जैन दर्शन की अनेकान्तवादी दृष्टि ही है जो एकान्त शाश्वतवाद एवं एकान्त उच्छेद्वाद
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org