Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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110 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
__बौद्धों के अनुसार ऐसे कर्मों से पुरूष स्पृष्ट होता है बद्ध नहीं, क्योंकि ये चारों कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं। वे रागद्वेष रहित बृद्धि पूर्वक या विशुद्ध मन से हुए शारीरिक प्राणातिपात को भावविशुद्धि होने के कारण कर्मोपचय नहीं मानते।42
सूत्रकार ने बौद्धों के इन तर्को को असंगत कहा है। "मैं पुत्र को मारता हूँ" ऐसे चित्त परिणाम को कथमपि भी असंक्लिष्ट नहीं माना जा सकता।43) जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर द्वेष या हिंसा में नहीं जाता, वह विशुद्ध है और इसलिए पापकर्म बंध नहीं होता, कहना असत्य है। जानकर हिंसा करने से पहले राग, द्वेष, कषाय भाव न आयें यह सम्भव नहीं है। वस्तुतः कर्मोपचय में मन ही तो प्रधान कारण है जिसे बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद भी मानता है।(44) बौद्धों ने भी तो कृत, कारित और अनुमोदित तीनों प्रकार के हिंसादि कार्य को पाप कर्मबन्ध का आदान कारण माना है। ईर्यापथ में भी बिना उपयोग के गमनागमन करना चित्त की संक्लिष्टता है, उससे कर्मबन्ध होता ही है। हाँ कोई साधक प्रमाद रहित होकर सावधानी से उपयोग पूर्वक चर्या करता है, किसी जीव को मारने की मन में भावना नहीं है तो वहां जैन सिद्धान्तानुसार पाप कर्म का बंध नहीं होता। परन्तु साधारण व्यक्ति बिना उपयोग के प्रमाद पूर्वक चलता है तो पापकर्म बंध होता ही है, अतः क्रियावादियों का मत असंगत है।16
जगत्कर्तृत्ववाद :- सूत्रकृतांग में जगत की रचना के सन्दर्भ में अज्ञानवादियों के प्रमुख सात मतों का निरुपण किया गया है-47
(i) किसी देव द्वारा कृत, संरक्षित एवं बोया हुआ। (ii) ब्रह्मा द्वारा रचित, रक्षित य उत्पन्न। (iii) ईश्वर द्वारा रचित। (iv) यह लोक प्रकृति कृत है। (v) स्वयंभूकृत लोक। (vi) यमराज रचित जगह माया है। (vii) लोक अण्डे से उत्पन्न है। शास्त्रकार की दृष्टि में ये समस्त जगत्कर्तृत्ववादी परामर्श से अनभिज्ञ,
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