Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 103
(iii) एकात्मवाद में देवदत्त को प्राप्त ज्ञान यज्ञदत्त को होना चाहिए एवं उसी
प्रकार एक के जन्म लेने या मरने पर सभी का जन्म लेना या मरना
सिद्ध होगा जो कथमपि सम्भव नहीं है। (iv) इसके अतिरिक्त जड़ और चेतन सभी में एक ही आत्मा मानने पर
जड़ एवं चैतन्य में भेद ही नहीं रह जायेगा। तथा जिसे शास्त्र का उपदेश दिया जाता है एवं जो शास्त्र का उपदेष्टा है दोनों में भेद न हो सकने के
कारण शास्त्र की रचना कैसे होगी। अतः एकात्मवाद अयुक्ति युक्त है क्योंकि "एगे किच्चा सयं पावं तिव्वं दुक्खं नियच्छइ'' अर्थात जो पाप कर्म करता है उसे अकेले ही उसके फल तीव्र दुःख को भोगना पड़ता है, दूसरे को नहीं। ___तज्जीवतच्छरीरवाद :- तज्जीवतच्छरीरवाद लोकायतों के अनात्मवाद का फलित रुप है। तज्जीवतच्छरीरवादी मानते हैं कि "वही जीव है, वही शरीर है। शरीर से आत्मा अभिन्न है। वैसे तो जैन दर्शन, न्याय दर्शन आदि भी कहते हैं कि "प्रत्यगात्माभिद्यते'' प्रत्येक प्राणी की आत्मा भिन्न है, वह अपने आप में सम्पूर्ण है, पूर्णशक्तिमान है किन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी कहता है कि जब तक शरीर रहता है तब तक ही उसकी आत्मा रहती है, शरीर के नष्ट होते ही आत्मा नष्ट हो जाती है क्योंकि शरीर रुप में परिणित पंचमहाभूतों से जो चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है, वह उनके बिखरते ही या अलग होते ही नष्ट हो जाती है तथा चैतन्य अन्यत्र जाता हुआ प्रत्यक्षतः दिखाई भी नहीं देता इसीलिए कहा गया कि "पेच्चा ण ते संति" अर्थात मरने के बाद परलोक में वे आत्माएं नहीं जाती। वृहदारण्यक उपनिषद् में भी कहा गया है कि प्रज्ञान (विज्ञान) का पिण्ड यह आत्मा, इन भूतों से उठकर (उत्पन्न होकर) इनके नाश के पश्चात ही नष्ट हो जाता है अतः मरने के पश्चात् इसकी चेतना (संज्ञा) नहीं रहती। बौद्धग्रन्थ "सुत्तपिटक' के उदान तथा "दीघनिकाय के सामन्यफलसुत्त" में भी इसी से मिलते-जुलते मन्तव्यों का उल्लेख है।
तज्जीवतच्छरीरवादियों पर आक्षेप करते हुए सूत्रकार कहता है कि यदि शरीर ही आत्मा है एवं लोक-परलोक आदि नहीं हैं तो धनी-निर्धन, रोगी-निरोगी,
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