Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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98 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
___ सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में मुख्यतः अन्य मतवादों का खण्डन किया गया है जो दूसरे श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में भी वर्णित है। द्वितीय श्रुतस्कंध जो अधिकांशतः गद्य में है लगभग उन्हीं विषयों की व्याख्या करता है जो प्रथम श्रुतस्कंध में हैं। दूसरे शब्दों में इसे प्रथम श्रुतस्कंध का पूरक कहा जा सकता है। जो निश्चित रुप से बाद में सूत्रकृतांग में जोड़ा गया है। दूसरे श्रुतस्कंध में मुख्यतः नवदीक्षित श्रमणों के आचार का वर्णन है। क्योंकि प्राचीन परम्परा के अनुसार श्रमण जीवन के चौथे वर्ष के बाद ही उन्हें सूत्रकृतांग पढ़ने की अनुमति थी।
इसका मुख्य कारण सम्भवतः यह था कि सूत्रकृतांग में पाये जाने वाले विभिन्न दार्शनिक मतों से कहीं वह प्रभावित न हो जाय या उन्हें अंगीकार न कर ले।
सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का समय प्रथम शताब्दी से पहले का है। द्वितीय श्रुतस्कंध निश्चित रुप से बाद का यानि प्रथम शताब्दी का है। सूत्रकृतांग में जिन मतों का उल्लेख है उनमें से कुछ का संबंध तत्त्ववाद या दर्शन शास्त्र से है एवं कुछ का आचार से है। इन मतों का वर्णन करते समय उस पद्धति को अपनाया गया है जिसमें पूर्वपक्ष का परिचय देकर बाद में उसका खण्डन किया जाता है। बौद्ध परम्परा के अभिधम्म पिटक की रचना भी इसी शैली में की गयी है। सम्पूर्ण सूत्रकृतांग को अध्ययन एवं समीक्षा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता हैं। प्रथम उसका दार्शनिक पक्ष एवं दूसरा-आचार पक्षा प्रस्तुत पत्र में हमारा अभीष्ट दार्शनिक पक्ष ही है।
दार्शनिक पक्ष :- समस्त भारतीय दर्शनों का एक ही लक्ष्य रहा है। बंधन से मुक्ति या आत्यंतिक दुःखों से निवृत्ति। अन्य दर्शनों की भांति जैन दर्शन की चरितार्थता कर्म से बंधन में पड़ी आत्मा की मुक्ति है। बंधन जैन दर्शन का एक परिभाषिक शब्द है जिसके अनुसार आत्म प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का बंध जाना या नीर क्षीरवत् एक रुप हो जाना ही बंधन है एवं इस बंधन से मुक्ति ही मोक्ष है। सूत्रकृतांग का प्रारम्भ ही इस बंधन से मुक्ति के उद्घोष के साथ होता है। सूत्रकृतांग(2 के आदि के प्रथम चार पदों में सम्पूर्ण जैन तत्त्व चिंतन का सार समाविष्ट है। ये पद हैं :
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