Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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80 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
'अप्पेगे अट्ठाए वहति, अप्पेगे अणट्ठाए वहति - अप्पेगे हिसिंसु मेत्ति वा वहति
अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति अप्पेगे हिसिस्संति मेत्ति वा वहति
- - (40/140) जहाँ तक हिंसा का प्रयोजनात्मक "अट्टाए" और अप्रयोजनात्मक "अणट्ठाए' विमा का प्रश्न है, अर्थवान अथवा प्रयोजनात्मक हिंसा के कुछ उदाहरण इसी गाथा के आरंभ में दिए गए हैं जिसमें कहा गया है कि कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं तो कुछ लोग चर्म, मांस, रक्त, हदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, दंत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और प्राणियों की अस्थिमज्जा के लिए उनका वध करते हैं। यह स्पष्ट ही प्रयोजनात्मक हिंसा है। हिंसा करने के बेशक और भी प्रयोजन हो सकते हैं। एक अन्य गाथा, जिसे आयारो में बार-बार दोहराया गया है, के अनुसार मनुष्य हिंसा वर्तमान जीवन के लिए प्रशंसा सम्मान
और पूजा के लिए जन्म-मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए करता है। (39/130)
इस प्रकार हम देखते है कि प्रयोजनार्थ हिंसा के कई विवरण हमें आयारो में मिलते है किन्तु अप्रयोजनात्मक (अणटाए) हिंसा का कोई स्पष्ट उदाहरण हमें नहीं मिलता परंतु एक गाथा में यह कहा गया है कि आसक्त मनुष्य हास्य-विनोद में (कभी-कभी) जीवों का वध कर आनंद प्राप्त करता है। . अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मन्नति .
- (130/32) इसे स्पष्ट ही निरर्थक (अप्रयोजनात्मक) हिंसा कहा जा सकता है। इस प्रकार की हिंसा से मनुष्य को कोई लाभ नहीं होता सिवा इसके कि वह इस प्रकार की हिंसा करके एक अस्वस्थ सुख प्राप्त करे। इस प्रकार की निर्थक हिंसा को हम क्रीड़ात्मक हिंसा भी कह सकते हैं। आयारो के अनुसार इस प्रकार की क्रीड़ात्मक
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