Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 89
विपाकदशा की विवेचना करते समय की है। पाठक इसे वहाँ देख सकते हैं। पं दलसुख भाई मालवणिया लिखते हैं कि इस आधार पर एक बात जो निश्चित होती है वह यह कि वल्लभी वाचना के समय उपलब्ध ग्रन्थों की विषयवस्तु में अभिवृद्धि या कमी नहीं की गयी। यदि की गयी होती तो स्थानांग में अनेक सूत्रों को कम करना होता और अनेक सूत्रों को बढ़ाना होता। वल्लभी वाचना के समय संकलन में पूर्ण प्रामाणिकता रखी गयी। संकलन कर्ता ने अपनी ओर से ग्रन्थों की विषयवस्तु में न तो नई विषयवस्तु को जोड़ा है और न अस्पष्ट और अवांछित विषयवस्तु को परिवर्तित किया है। इतना ही नहीं परस्पर विसंगतियों को उन्होंने हटाने का भी प्रयत्न नही किया, मात्र इतना ही किया कि जो वस्तु जिस रुप में थी उसी रुप में व्यस्थित करके ग्रन्थ बद्ध कर दिया। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ को अंतिम रुप वीर निर्वाण संवत् की छठी शताब्दी के अन्त में अर्थात् ईसा की प्रथम शताब्दी में मिला और उसके बाद इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ।
यद्यपि यह स्पष्ट है कि ग्रन्थ की प्रथम संकलना से लेकर ईसा की प्रथम : शताब्दी से इसे अंतिम रुप मिलने तक इसमें कुछ अभिवृद्धि या परिवर्तन हुए, क्योंकि
वे इसकी विषय प्रतिपादन शैली आदि से भिन्न हैं। उदाहरण के रुप में स्थानांग में भावी तीर्थकर विमलवाहन का जो विस्तृत जीवन परिचय दिया गया है वह निश्चित रुप से बाद में जोड़ा गया है, क्योंकि वह पूरा विवरण कथा रुप में है और राजा श्रेणिक के जीव का भविष्य में विमलवाहन नामक तीर्थंकर के रुप में जन्म लेने का • उल्लेख करता है। इसी प्रकार नन्दीश्वर द्वीप के चार पर्वतों के नाम में अंजनक पर्वत का उल्लेख तो अप्रासंगिक नहीं है किन्तु पर्वत का विस्तृत विवरण निश्चित ही कहीं से जोड़ा गया है। इसी प्रकार सुख-शैया, दुःख शैया, मोहनीय स्थान, विभंग ध्यान, बलदेव-वासुदेव का वर्णन, स्वरमंडल प्रकरण और तृतीय स्थान के द्वितीय • उद्देशक में गौतम और महावीर के बीच का संवाद यह सब कहीं से इसमें जोड़ा गया है, किन्तु यह सब ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक हो चुका था। इस प्रकार स्थानांग का रचना काल वीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी से छठी शताब्दी तक विस्तृत है। यद्यपि इसे अंतिम रुप वीर निर्वाण छठी शताब्दी में ही मिला।
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