Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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86 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
अनुश्रुति से उन्हें इस संख्या क्रम वाले स्वरुप का बोध था । विषयवस्तु की कल्पना उन्होंने अपने ढंग से की है। श्वेताम्बर परम्परा में 2 हजार और दिगम्बर परम्परा में 42 हजार पद प्रमाण होने की जो बात कही गयी है, वह अतिश्योक्ति पूर्ण ही लगती है। वर्तमान में प्रस्तुत सूत्र का श्लोक परिमाण 3770 है।
स्थानांग का रचना काल :- परम्परागत दृष्टि से सभी अंग आगमों के अर्थ रुप से उपदेष्टा भगवान् महावीर और शब्द रुप से उनके प्रणेता गौतम गणधर आदि माने गये हैं किन्तु यदि हम स्थानांग की विषयवस्तु पर विचार करें तो स्पष्ट रुप से ऐसा लगता है कि इसमें समय-समय पर विषयसामग्री डाली जाती रही है। पं. दलसुख भाई मालवणिया के शब्दों में इस ग्रन्थ की रचना पद्धति को समझ लेने के पश्चात् यह समझना अत्यन्त सरल हो जाता है कि इस ग्रन्थ में समय-समय पर किस प्रकार की विषयवस्तु को जोड़ा जाता रहा है। यद्यपि यह अभिवृद्धि संख्या की दृष्टि से ही हुई है, किन्तु इनका संबंध इतिहास के साथ भी है। इसमें जिस-जिस प्रकार की विषयवस्तु की अभिवृद्धि की गयी है, उसे पहचान पाना भी कठिन नहीं है उदाहरण के रुप में सातवें स्थान में निह्नव संबंधी सामग्री और नवें स्थान में गण संबंधी सामग्री बाद में जोड़ी गयी है। स्थानांग को देखने से यह स्पष्ट मालूम होता है कि सम्यक् दृष्टि सम्पन्न गीतार्थ पुरूषों ने पूर्व परम्परा से चली आने वाली श्रुत सामग्री में महावीर के निर्वाण के पश्चात यत्र-तत्र हानि-वृद्धि की है। स्थानांग के नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में भगवान् महावीर के नौ गणों के नाम आते हैं। ये नाम इस प्रकार हैं :गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उड्डवातितगण, विस्सवातितगण, कामड्ढितगण, मालवगण और कोडिकगण । कल्पसूत्र की स्थिविरावली में इन गणों की उत्त्पत्ति इस प्रकार बताई गयी है :प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु के चार स्थविर शिष्य थे जिनमें से एक का नाम गोदास था। इन काश्यप गोत्रीय गोदास स्थविर से गोदास नामक गण की उत्पत्ति हुई । एलावच्च गोत्रीय आर्य महागिरि के आठ स्थविर शिष्य थे इनमें से एक का नाम उत्तरबलिस्सह था। इनसे उत्तरबलिस्सह नामक गण निकला। वशिष्ठ गोत्रीय आर्य सुहस्ती के बारह स्थविर शिष्य थे जिनमें से एक का नाम आर्य रोहण था। इन्हीं
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