Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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स्थानांगसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन
- प्रो. सागरमल जैन स्थानांगसूत्र के वर्तमान में अनेक संस्करण उपलब्ध हैं जिनमें गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद द्वारा संचालित "पूंजाभाई जैन ग्रन्थमाला'' के 23वें पुष्प के रुप में स्थानांग तथा समवायांग का पं. दलसुखभाई मालवणिया कृत जो सुन्दर, सुबोध तथा सुस्पष्ट अनुवाद एवं प्रस्तावना और तुलनात्मक टिप्पणियों के साथ प्रकाशन हुआ है, उससे स्थानांग और समवायांग की विषयवस्तु को समझने में पर्याप्त सहायता मिल सकती है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में पं. दलसुख भाई मालवणिया ने इन ग्रन्थों के विषय परिचय के साथ-साथ इनकी रचना शैली एवं रचनाकाल के संबंध में भी विचार किया है। इसी प्रकार मुनि कन्हैयालालजी "कमल'' द्वारा संपादित एवं युवाचार्य मधुकर मुनि द्वारा संपादित "स्थानांगसूत्र" और उसकी देवेन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा लिखित भूमिका भी स्थानांग के परिचय के लिये महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। यद्यपि इस भूमिका में मुख्य रुप से पं. दलसुख भाई के लेखन और विशेष रुप से उनकी टिप्पणियों को ही आधार बनाया गया है। इन ग्रन्थों के संबंध में विशिष्ट जानकारी के लिये उन संस्करणों को देखा जा सकता है। यहाँ पर हम संक्षेप में ही इन ग्रन्थों के स्वरुप, रचना शैली, रचनाकाल एवं विषयवस्तु के संबंध में प्रकाश डालेंगे।
स्थानांग का स्वरुप :- द्वादश अंग सूत्रों में स्थानांग तृतीय अंग सूत्र माना जाता है। स्थानांग शब्द स्थान + अंग से बना है। नन्दी सूत्र के अनुसार एक से प्रारम्भ करके एक-एक बढ़ाते हुए 10 स्थानों तक विभिन्न भावों का वर्णन होने से इसे स्थानांग नाम दिया गया है। जिनदासगणि महत्तर के अनुसार जिसका स्वरुप स्थापित किया जाये अथवा ज्ञापित किया जाये, वह स्थान है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिसमें जीवादि विषयों का व्यवस्थित रुप से प्रतिपादन किया जाता है वह स्थान है।
वस्तुतः यह अर्थ स्थानांग की विषयवस्तु को दृष्टि में रखकर प्रस्तुत किये गये हैं। • वस्तुतः यहाँ "स्थान" शब्द संख्या क्रम का सूचक है। उपदेशमाला में "स्थान" शब्द का अर्थ "मान" अथवा "परिमान" किया गया है इससे इसका संख्यासूचक
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