Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
42 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
दोनों शब्द व्यापक अर्थ में भी समझे जा सकते हैं और विशेष नाम के रूप में भी। जो संयम की साधना में शूर है वह वीर अथवा महावीर है। जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर का मूल नाम तो वर्धमान है किन्तु अपनी साधना की शूरता के कारण वे वीर अथवा महावीर कहे जाते हैं। "वीर" व "महावीर" शब्दों का अर्थ इन दोनों रूपों में समझा जा सकता है। ____ इस सूत्र में प्रयुक्त "आरिय'" व "अणारिय' शब्दों का अर्थ व्यापक रूप में समझना चाहिए। जो सम्यक् आचार – सम्पन्न हैं - अहिंसा का सर्वांगीण आचरण करने वाले है वे आरिय - आर्य हैं। जो वैसे नहीं है वे अणारिय - अनार्य हैं। __मेहावी (मेधावी), मइमं (मतिमान्), धीर, पंडिअ (पण्डित), पासअ (पश्यक), वीर, कुसल (कुशल) माहण (ब्राह्मण), नाणी (ज्ञानी), परमचक्खु (परमचक्षुष्), मुणि (मुनि), बुद्ध, भगवं (भगवान्) आसुपन्न (आशुप्रज्ञ), आययचक्खु (आयतचक्षुष्) आदि शब्दों का प्रयोग प्रस्तुत सूत्र में कई बार हुआ है। इनका अर्थ बहुत स्पष्ट है। इन शब्दों को सुनते ही जो सामान्य बोध होता है वही इनका मुख्य अर्थ है और यही मुख्य अर्थ यहाँ बराबर संगत हो जाता है। ऐसा होते हुए भी चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इन शब्दों का जैन परिभाषा के अनुसार विशिष्ट अर्थ किया है। उदाहरण के लिए पासअ (पश्यकद्रष्टा) का अर्थ सर्वज्ञ अथवा केवली, कुसल (कुशल) का अर्थ तीर्थकर अथवा वर्धमान स्वामी, मुणि (मुनि) का अर्थ त्रिकालज्ञ अथवा तीर्थकर किया है।
जाणइ-पासइ का प्रयोग भाषाशैली के रूप में :- आचारांग में "अकम्मा जाणइ पासइ'" (5, 6), "आसुपन्नेण जाणया पासया" (7,1) अजाणओ अपासओ" (5,4) आदि वाक्य आते हैं, जिनमें केवली के जानने व देखने का उल्लेख है। इस उल्लेख को लेकर प्राचीन ग्रन्थकारों ने सर्वज्ञ के ज्ञान व दर्शन के क्रमाक्रम के विषय में भारी विवाद खड़ा किया है और जिसके कारण एक आगमिक पक्ष व दूसरा तार्किक पक्ष इस प्रकार के दो पक्ष भी पैदा हो गये हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि "जाणइ" व "पासई" ये दो क्रियापद केवल भाषार्शली -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org