Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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62 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
कुक्षि में बदला। उस समय महावीर तीन ज्ञानयुक्त थे। नौ महीने व साढ़े सात दिन-रात बीतने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र में भगवान् का जन्म हुआ। जिस रात्रि में भगवान पैदा हुए उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव व देवियाँ उनके जन्मस्थान पर आये। चारों ओर दिव्य प्रकाश फैल गया। देवों ने अमृत की तथा अन्य सुगन्धित पदार्थों व रत्नों की वर्षा की । भगवान - का सूतिकर्म देव - देवियों ने सम्पन्न किया। भगवान् के त्रिशला के गर्भ में आने के बाद सिद्धार्थ का घर धन, सुवर्ण आदि से बढ़ने लगा। अतः माता-पिता ने जातिभोजन कराकर खूब धूमधाम के साथ भगवान् का वर्धमान नाम रखा। भगवान् पाँच प्रकार के अर्थात् शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गंधमय कामभोगों का भोग करते हुए रहने लगे। भगवान् के तीन नाम थे, वर्धमान, श्रमण व महावीर। इनके पिता के भी तीन नाम थे : सिद्धार्थ, श्रेयांस व जसंस। माता के भी तीन नाम थे : त्रिशला, विदेहदत्ता व प्रियकारिणी। इनके पितृव्य अर्थात् चाचा सुपार्श्व, ज्येष्ठ भ्राता का नाम नंदिवर्धन, ज्येष्ठ भगिनी का नाम सुदर्शना व भार्या का नाम यशोदा था। इनकी पुत्री के दो नाम थे : अनवद्या व प्रियदर्शना।। इनकी दोहित्री के भी दो नाम थे : शेषवती व यशोमती। इनके माता, पिता पाश्र्वापत्य अर्थात् पार्श्वनाथ के अनुयाथी थे। वे दोनों श्रावक धर्म का पालन करते थे। महावीर तीस वर्ष तक सागारावस्था में रहकर माता-पिता के स्वर्गवास के बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने पर, समस्त रिद्धिसिद्धि का त्याग कर, अपनी संपत्ति को लोगों में बाँट कर हेमन्त ऋतु की मृगशीर्ष - अगहन कृष्णा दशमी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र में अनगार वृत्ति वाले हुए । उस समय लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान् महावीर से कहा कि भगवन् ! समस्त जीवों के हितरूप तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये। बाद में चारों प्रकार के देवों ने उनका दीक्षा-महोत्सव किया। उन्हें शरीर पर व शरीर के नीचे के भाग पर फूंक मारते ही उड़ जाय ऐसा पारदर्शक हंसलक्षण वस्त्र पहनाया, आभूषण पहनाये और पालकी में बैठाकर अभिनिष्क्रमण - उत्सव किया। भगवान पालकी में सिंहासन पर बैठे। उनके दोनों ओर शक्र और ईशान इन्द्र खड़े-खड़े चँवर डूलाते थे। पालकी के अग्रभाग अर्थात् पूर्वभाग को सूरों ने, दक्षिणभाग को असुरों ने, पश्चिम भाग को गरूड़ों ने एवं
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