Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 75
मेधावी बनाम मंदमति - आयारो में मनुष्य के दो स्पष्ट प्रारुप बताए गए हैं- मेधावी और मूढ़ या मंदमति।
प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है मेधावी और मूढ़ मानव बुद्धि का एक माप है जिसके एक छोर पर 'मेधावी' और दूसरे छोर पर 'मंद-मति' है लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं। यह मानव बुद्धि का पैमाना न होकर व्यक्तियों के दो वर्ग हैं। मेधावी व्यक्तियों की कुछ नैतिक-चारित्रिक विशेषताएँ हैं जो मंदमति व्यक्तियों से भिन्न और उनकी विरोधी हैं।
___ मंदमति लोग मोह से आवृत्त होते हैं। ये आसक्ति में फंसे हुए लोग हैं-मंदा मोहेण पाउडा (736/30)। दूसरी ओर मेधावी पुरुष मोह और आसक्ति को अपने पास फटकने नहीं देते। वे इन सब से निवृत्त होते हैं। अरइं आउट्टे से मेहावी (73/27)- जो अरति का-चैतसिक उद्वेगों का- निवर्तन करता है, वही मेधावी है। आसक्ति मनुष्य को बेचैन करती है, अशांत करती है उसे व्यथित और उद्वेलित करती है किंतु मेधावी मुरुष वह है जो न चिंतित होता है न व्यथित या उद्वेलित। वह सभी उद्वेगों को अपने से बाहर निकाल फेंकता है। उनसे निवृत्ति पा लेता है।
"अरति" (अरई) का अर्थ जहाँ एक ओर बेचैनी और अशांति से है, वहीं दूसरी ओर, विरक्ति या राग के अभाव को भी "अरति" कहा गया है। किंतु "अरिइं आउट्टे" राग के अभाव से निवृत्ति नहीं है, वह तो स्वयं राग से असंयम से निवृत्ति है। संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और आनंद का विकास होता है। संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका हास होता है। "अरिइं आउ?" संयम से होने वाली "अरति'' (विरक्ति) का निवर्तन है (पृ. 106)। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं। - जो व्यक्ति मंदमति है, सतत मूढ़ है वह धर्म को नहीं समझता। सततं मूढ़े धम्मं णभिजाणइ (88/63)। दूसरी ओर जो व्यक्ति आज्ञा (धर्म) में श्रद्धा रखता है, वह मेधावी है- सड्ढी आणाए मेहावी (140/80)। मेधावी सदा धर्म का पालन करता है और निर्देश की कभी अतिक्रमण नहीं करता। णिद्देसं णतिवटेज्जा मेहावी (202/115)।
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