Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 57
शय्यैषणा :- शय्यैषणा नामक द्वितीय प्रकरण में कहा गया है कि जिस स्थान में गृहस्थ सकुटुम्ब रहते हों वहाँ भिक्षु नहीं रह सकता क्योंकि ऐसे स्थान में रहने से अनेक दोष लगते हैं। कई बार ऐसा होता है कि लोगों की इस मान्यता से कि ये श्रमण ब्रह्मचारी होते हैं अतः इनसे उत्पन्न होने वाली सन्तान तेजस्वी होती है, कोई स्त्री अपने पास रहने वाले भिक्षु को कामदेव के पंजे में फंसा देती है जिससे
की है किन्तु वह समग्र चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। अतः प्रस्तुत आलेख में हम उस अंश को नहीं दे रहे हैं। हमारी दृष्टि में अग्राह्य भोजन के संदर्भ में आचारांग में भोजन की अनोद्देशिकता पर ही अधिक बल दिया गया है। प्राचीन काल में मुनि की भिक्षाचर्या एवं आहारचर्या की चर्चा करते हुए इस पक्ष पर अधिक बल दिया गया था कि भिक्षु जिस भिक्षा को ग्रहण करे वह भिक्षा औद्देशिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि औद्देशिक भिक्षा को ग्रहण करने पर कहीं न कहीं उसके अहिंसा महाव्रत पर दोष आता है। यह ज्ञातव्य है कि परवर्ती काल में भोजन की शुद्धता पर भी बल दिया गया और यह कहा गया कि मात्र अनोद्देशिक ही नहीं अपितु ऐसा भोजन जो अचित्त होते हुए भी परिशुद्ध नहीं है, उसे नहीं लेना चाहिए।
... भोजन की परिशुद्धि के सम्बन्ध में 22 अभक्ष्यों का विचार किया गया है। आचारांग में भी आमगंध अर्थात् सामिष भोजन लेने का स्पष्ट निषेध है। चाहे दाता ऐसा भोजन देना भी चाहे तो भी भिक्षु यह कहकर उसका स्पष्ट निषेध कर दे कि ऐसा भोजन मेरे लिए अकल्प्य अर्थात् अग्राह्य है। आगमिक व्याख्याओं में यह भी निर्देश है कि मुनि को अचित्त होने पर भी अपरिशुद्ध भोजन इसलिए भी नहीं लेना चाहिए कि उससे गृहस्थ उपासकों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। यह भी माना गया है कि अपवाद मार्ग में चाहे किसी परिस्थिति में औद्देशिक आहार लेना पड़े किन्तु अपरिशुद्ध आहार तो कभी नहीं लेना चाहिए।
- सम्पादक
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