Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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40.: अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
लोगों में जो-जो वस्तुएँ शस्त्र के रूप में प्रसिद्ध हैं उनके अतिरिक्त अन्य पदार्थों अर्थात् भावों के लिए भी शस्त्र शब्द का प्रयोग होता है। आचारांग में राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं तज्जन्य समस्त प्रवृत्तियों को सत्थ - शस्त्ररूप कहा गया है। अन्य किसी शास्त्र में इस अर्थ में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं देता।
बौद्धपिटकों में जिस अर्थ में "मार" शब्द का प्रयोग हुआ है उसी अर्थ में आचारांग में भी "मार' शब्द प्रयुक्त है। सुत्तनिपात के कप्पमाण पुच्छा सुत्त के चतुर्थ पद्य व भद्रावुधमाणवपुच्छा सुत्त के तृतीय पद्य में भगवान् बुद्ध ने "मार" का स्वरूप समझाया है। लोकभाषा में जिसे "शेतान'' कहते है वही "मार" है। सर्व प्रकार का आलंभन शैतान की प्रेरणा का ही कार्य है। सूत्रकार ने इस तथ्य का प्रतिपादन "मार" शब्द के द्वारा किया है। इसी प्रकार "नरअ'" "नरक" शब्द का प्रयोग भी सर्व प्रकार के आलंभन के लिए किया गया है। निरालंब उपनिषद् में बंध, मोक्ष, स्वर्ग, नरक आदि अनेक शब्दों की व्याख्या की गई है। उसमें नरक की व्याख्या इस प्रकार है : "असत्संसारविषयजनसंसर्ग एवं नरकः' अर्थात् असत् संसार, उसके विषय एवं असज्जनों का संसर्ग ही नरक है। यहाँ सब प्रकार के आलंभन को "नरक' शब्द से निर्दिष्ट किया है। इस प्रकार "नरक" शब्द का जो अर्थ उपनिषद् को अभीष्ट है वही आचारांग को भी अभीष्ट है। ____ आचारांग में "नियागपडिवन्न' - नियागप्रतिपन्न (अ.1, उ.3) पद में "नियाग'' शब्द का प्रयोग है। याग व नियाग पर्यायवाची शब्द है जिनका अर्थ है यज्ञ। इन शब्दों का प्रयोग वैदिक परम्परा में विशेष होता है। जैन परम्परा में "नियाग" शब्द का अर्थ भिन्न प्रकार से किया गया है। आचारांग-वृत्तिकार के शब्दों में "यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागः नियागो मोक्षमार्गः संगतार्थत्वाद् धातोः - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं संगतम् इति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक मोक्षमार्ग प्रतिपन्नः' (आचारांगवृत्ति, पृ. 38) अर्थात् जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र की संगति हो वह मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग नियाग है। मूलसूत्र में "नियाग" के स्थान पर "निकाय" अथवा "नियाय पाठान्तर भी है। वृत्तिकार लिखते हैं: "पाठान्तरं वा निकायप्रतिपन्नः - निर्गतः कायः औदारिकादियस्मात्
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