Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 23
सुधर्मास्वामी के वचनों के प्रतिबिम्ब के रूप में हों। इनमें से कौन से शब्द किस कोटि के हैं, इसका पृथक्करण यहाँ सम्भव नहीं। वर्तमान में हम गुरुनानक, कबीर, नरसिंह मेहता, आनन्दघन, यशोविजय उपाध्याय आदि के जो भजन - स्तवन गाते है उनमें मूल की अपेक्षा कुछ-कुछ परिवर्तन दिखाई देता है। इसी प्रकार का थोड़ा-बहुत परिवर्तन आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में प्रतीत होता है। यही बात सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के विषय में भी कही जा सकती है। शेष अंगों के विषय में ऐसा नहीं कह सकते। ये गीतार्थ स्थविरों की रचनाएँ है। इनमें महावीर आदि के शब्दों का आधिक्य न होते हुए भी उनके आशय का अनुसरण तो है ही।
ब्रह्मचर्य एवं ब्राह्मण :- आचारांग का दूसरा नाम बंभचेर अर्थात् ब्रह्मचर्य है। इस नाम में "ब्रह्म" और "चर्य' ये दो शब्द है। नियुक्तिकार ने ब्रह्म की व्याख्या करते हुए नामतः ब्रह्म, स्थापनातः ब्रह्म, द्रव्यतः ब्रह्म एवं भावतः ब्रह्म- इस प्रकार ब्रह्म के चार भेद बतलाये हैं। नामतः ब्रह्म अर्थात् जो केवल नाम से ब्रह्म-ब्राह्मण है। स्थापनातः ब्रह्म का अर्थ है चित्रित ब्रह्म अथवा ब्राह्मणों की निशानी रूप यज्ञोपवीतादि युक्त चित्रित आकृति अथवा मिट्टि आदि द्वारा निर्मित्त वैसा आकार-मूर्ति-प्रतिमा अथवा जिन मनुष्यों में बाह्य चिह्नों द्वारा ब्रह्मभाव की स्थापना-कल्पना की गई हो, जिनमें ब्रह्मपद के अर्थानुसार गुण भले ही न हों वह स्थापनातः ब्रह्म - ब्राह्मण कहलाता है। यहाँ ब्रह्म शब्द का ब्राह्मण अर्थ विवक्षित है। मूलतः तो ब्रह्म शब्द ब्रह्मचर्य का ही वाचक है। चूँकि ब्रह्मचर्य संयम रूप है अतः . ब्रह्म शब्द सत्रह प्रकार के संयम सूचक भी हैं। इसका समर्थन स्वयं नियुक्तिकार ने (28वीं गाथा में) किया है। ऐसा होते हुए भी स्थापनातः ब्रह्म का स्वरूप समझाते हुए नियुक्तिकार ने यज्ञोपवीतादियुक्त और ब्राह्मणगुणवर्जित जाति ब्राह्मण को भी स्थापनातः ब्रह्म क्यों कहा? किसी दूसरे को अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र को स्थापनातः
ब्रह्म क्यों नहीं कहा? इसका समाधान यह है कि जिस काल में आचारांगसूत्र की - योजना हुई वह काल भगवान् महावीर व सूधर्मा का था। उस काल में ब्रह्मचर्य धारण
करने वाले अधिकांशतः ब्राह्मण होते थे। किसी समय ब्राह्मण वास्तविक अर्थ में ब्रह्मचारी थे किन्तु जिस काल की यह सूत्रयोजना है उस काल में ब्राह्मण अपने
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