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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 नामक गुण (पर्याय) विद्यमान है, क्योंकि शरीर में उसके द्वारा की गई क्रिया देखी जाती है। इसको इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं कि जिस समय देवदत्त हाथ को ऊँचा उठा रहा या चला रहा है, उस आत्मा में क्रिया का उत्पादक प्रयत्न गुण अवश्य है अन्यथा शरीर के अवयवों में उठाना या पाँवों का चलाना आदि क्रियाएँ नहीं देखी जा सकती थी। अतः संपूर्ण शरीर में ओतप्रोत आत्मा ही उठती, चलती, फिरती है। इस प्रकार दो हेतुओं से आत्मा में गति सिद्ध होती है।
वैशेषिक दार्शनिकों का मानना है कि आत्मा के देश से देशान्तर होना रूप गति नहीं है, क्योंकि जगत् के सभी स्थानों में प्राप्त होती है। जैसे विभु आकाश। इसका निरसन करते हुए आचार्य विद्यानन्द ने उत्तर दिया है कि सर्वगत्व हेतु असिद्ध है। पक्ष में नहीं रहने से क्योंकि आत्मा स्वदेह प्रमाण है जिसका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सभी जीवों को स्व-स्व शरीर में हो रहा है अर्थात् किसी भी जीव को अपनी आत्मा का संवेदन बाहर नहीं होता। अतः आत्मा अणुपरिमाण या महापरिमाण वाला नहीं है। यदि ऐसा माना जायेगा तो व्यवहार सांकर्य हो जायेगा।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा व्यापक मान्य है। आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के समर्थन में अनेक हेतु दिये गये हैं, जो दृष्टव्य हैं-१२
__ आत्मा व्यापक है क्योंकि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन इन पाँच मूर्तों से भिन्न होने से, देवदत्त के सैकड़ों, हजारों कोस दूर बन रहे वस्त्र अलंकार देवदत्त की आत्मा के गुणों द्वारा संपादित किये जाते हैं क्योंकि उसके उपकारक होने से, आत्मा सर्वत्र जाने जा रहे गुणों के आधार होने से, आत्मा हम सभी के जानने योग्य गुणों का अधिष्ठान होने से, आत्मा द्रव्य होते हुए अमूर्त होने से, आत्मा मन से भिन्न होता हुआ स्पर्शरहित द्रव्य होने से। इन छह हेतुओं के द्वारा आत्मा को व्यापक सिद्ध करने का प्रयास किया गया, परन्तु आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने विस्तार से निरसन करते हुए कहा कि उक्त सभी हेतु प्रत्यक्षबाधित हैं, जैसे कि मिश्री का मीठापन प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा गृहीत हो रहा है, ऐसी दशा में दो चार तो क्या सहस्रों हेतु भी मिश्री को कड़वी सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। उसी प्रकार शरीर में ही आत्मा