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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
जैनदर्शन में विवेचित विग्रहगति की
अन्य दर्शनों से तुलना
- प्रा. डॉ० शीतल चन्द जैन
भारतीय दर्शन में जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। इसका मुख्य कारण जैन दार्शनिकों का चिंतन युक्तिपूर्ण तो है ही और पूर्वपक्ष को प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करना भी है। ऐसे महान् दार्शनिक चिंतकों में तार्किक चूडामणि आचार्य विद्यानंद ने अपने प्रखर पाण्डित्य से वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म तों से अनेकानेक सिद्धान्तों का निरसन किया। उन सिद्धांतों में आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के २५वेंसूत्र विग्रहगतौ कर्मयोगः को अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में विस्तार से व्याख्यायित किया है कि संसारी जीव के मर जाने पर यानी भुज्यमान आयु के समाप्त होने पर तथा पूर्व जन्म सम्बन्धी शरीर के नष्ट होने पर और द्रव्यमान का भी विनाश हो चुकने पर आत्मा असहाय हो जाती है, तब अगले भव में जीव का जहाँ जन्म होना है, उस योग्य क्षेत्र में जीव कैसे प्रवृत्ति करेगा? इस प्रश्न का समाधान भारतीय दार्शनिकों ने अपने-अपने मत से दिया है, परन्तु आचार्य विद्यानंद ने उन मतों का निरसन भी किया है। सर्वप्रथम विग्रहगतौ कर्मयोगः इस सूत्र के प्रत्येक पद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि विग्रहो देहः गतिगमनक्रिया विग्रहाय गतिः विग्रहगतिः। यद्यपि विग्रह शब्द के अनेक अर्थ हैं, परन्तु यहाँ पर विग्रह शब्द का अर्थ 'शरीर'
अभिप्रेत है। अर्थात् विग्रह यानी शरीर के लिये जो गति यानी गमन होता है, वह विग्रहगति है। तथा कर्म का अर्थ आत्मा में प्रवाहरूप से उपचित हो रहा कार्मण शरीर है। कर्मस्वरूप ही जो योग है, वह कर्मयोग है। अर्थात् कार्माण शरीर का अवलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में कम्पनस्वरूप क्रिया कर्मयोग कहलाता है। पूर्व उपात्त शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर के प्रतिगमन के समय अंतराल में जो गति, गमन क्रिया होती है, उसमें कर्मयोग होता है।
अतः इसको इस प्रकार कह सकते हैं कि पूर्व शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर के अभिमुख हो, जाते हुए जीव के अंतराल में कर्मादान यानी कर्मग्रहण