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अनेकान्त 68/1, जनवरी - मार्च, 2015
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भिन्न नहीं है। यदि ये परस्पर निरपेक्ष तथा अत्यन्त भिन्न हो जाएंगे तो आकाश - कुसुम की तरह इनका अभाव हो जाएगा। स्थिति और नाश से रहित केवल उत्पाद नहीं होता। इसी तरह विनाश और उत्पाद से रहित केवल स्थिति भी नहीं रहती । इस प्रकार परस्पर सापेक्ष ही उत्पादादि वस्तु में सत्व रूप हो सकते हैं।
आचार्य हरिभद्र ने सूक्ष्म रूप से विचार किया है कि जब घट नष्ट होता है तब वह एकदेश से कुछ नष्ट होता है या सर्वदेश से पूरा का पूरा । यदि एकदेश से नष्ट होता है तो संपूर्ण घट का नाश न होकर उसके एक देश का ही नाश होना चाहिए। परन्तु हम घट को संपूर्ण ही नष्ट हुआ पाते हैं। इसलिए घट का एकदेश से नाश उचित नहीं है। यदि दूसरा पक्ष माने, यानि घट संपूर्ण सर्वदेश से नष्ट होता है तो घट के नाश होने पर कपाल और मिट्टी नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि घट का सर्वात्मना पूर्ण रूप से विनाश मानना उचित नहीं है। अतः अन्य कोई गति न रहने से बलपूर्वक यह मानना पड़ता है कि घट पट स्वरूप से नष्ट होता है, कपाल स्वरूप से उत्पन्न होता है और मिट्टी के रूप से ध्रुव है (वही पृ. ३५० -५१)।
आधुनिक संदर्भ में अनेकांतवाद की प्रासंगिकता : यद्यपि अनेकांतवाद दर्शन शास्त्र के तत्व मीमांसा के विश्लेषण से सम्बद्ध है और इसका विकास तात्विक चिंतन में वैमनस्य और वैयक्तिक अहं को दरकिनार कर सामंजस्य तथा परस्पर समन्वयवादी दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हुआ। तथापि अनेकांतवाद के सिद्धांत का उपयोग व्यक्ति के वास्तविक जीवन के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है, अगर इसका उपयोग सावधानी और विवेक के साथ किया जाए। ऐसे में यह सिद्धांत मनुष्य के विकास को गति देने में अचूक इंजन के रूप में खड़ा मिलेगा। आज मानव सभ्यता जिस संकट के दौर से गुजर रही है उसका मुख्य कारण व्यक्ति का व्यक्ति से, देशों का देशों से और संस्कृतियों का अन्य संस्कृति से अहं और टकराव की भावना है। इसमें अपने विचार को समग्र मानकर और दूसरे विचारों के प्रति घोर असहिष्णुता का भाव रखना मुख्य हो जाता है। इसे हम जीवन के सामान्य क्षेत्रों से लेकर विशिष्ठ संस्थाओं तक देख सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में अनेकांतिक दर्शन का उपयोग इस संकट का हल खोजने में