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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 में पाई नहीं जाती, अतः उनका नास्तित्व रूप से संबन्ध है। जिस प्रकार घटावस्था में मिट्टी का पिंड आदि पर्यायें पाई नहीं जाती अतः उनका घड़े के साथ नास्तित्व रूप से संबंध है। इस कारण वे परपर्यायें उस पदार्थ में नहीं रहती। असत हैं, इसीलिए तो वे परपर्यायें कही जाती हैं। परपर्यायें घट में पाई ही नहीं जाती तो वे घट कैसे कही जा सकती हैं? दरिद्र के पास धन नहीं हो तो क्या कहीं भी दरिद्र संबन्धी धन है, ऐसा व्यवहार होता है? जो चीज जहाँ पाई नहीं जाती, उसका उसमें संबन्ध जोड़ना तो स्पष्ट ही लोक व्यवहार का अतिक्रमण है।
हरिभद्र का मानना है कि संसार की सब वस्तुएं अपने-अपने प्रतिनियत निश्चित स्वरूप में स्थित है। किसी का स्वरूप दूसरे से मिलता नहीं है। वस्तुओं की यह प्रतिनियत स्वभावता-असाधारण स्वरूप का होना। जिन वस्तुओं से उसका स्वरूप भिन्न रहता है, उन प्रतियोगी पदार्थों के अभाव के बिना नहीं बन सकती। घट का स्वरूप पट से भिन्न है, तो जब तक पदादि का अभाव न होगा, तब तक घट में अपना असाधारण घट स्वरूप भी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए जब तक उन प्रतियोगी पर-पदार्थों का परिज्ञान होगा, तब तक हम घटादि को उनसे व्यावृत्त रूप में पटाभावरूप है, यह जानना भी असंभव है। घट में पटाभाव की प्रतीति होती है, अतः घट के ज्ञान के लिए प्रतियोगी पटादि ज्ञान पहले होना चाहिए। इस दृष्टि से भी पर्यायें घट भी कही जा सकती है षड्दर्शनसमुच्चय-पृष्ठ-३४१ ।
ऊपर कही हुई वस्तु अनन्तधर्मात्मकता को दृढ़ करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं -
येनोत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं यत् तत्सदिष्यते अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः।।
वही कारिका ५७, पृ. ३४७ अर्थात् जो भी वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त होगी, वही सत् कही जाएगी। प्रत्येक वस्तु, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है। जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण में परिणाम होते रहते हैं। लेकिन उसमें रहने वाले द्रव्यत्व की स्थिति ध्रौव्य है। अतः प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक है। वस्तु का यह स्वरूप स्वयं अनेकांतता को