Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
सेवा - परायणता
गुरुदेव श्री सर्वाधिक किसी बात के लिए चर्चित एवं प्रशंसित हुये हैं तो वह है “ सेवा" ।
सेवा इनके अन्तर का स्वीकृत धर्म है, इनकी श्रेष्ठता का मर्म है ।
समस्त मेवाड़ इस बात का साक्षी है कि स्वर्गीय पूज्यश्री मोतीलाल जी महाराज की गुरुदेवश्री ने सर्वोत्कृष्ट सेवाएँ कीं । अभी कुछ वर्षों पूर्व तक गोचरी स्वयं लाकर सभी मुनिराजों की सेवा करते थे । प्रत्येक मुनिराज की छोटीबड़ी सभी तरह की आवश्यकताओं का ध्यान प्रवर्तक श्री बराबर रखते हैं और कल्पानुसार सेवा करने में सदा आगे रहे । यही कारण है कि हमारे मुनिराज महासतियों में अम्बा के स्थान पर अम्मा (माता) कहकर सेवा के सर्वोच्च पद मातृत्व से इन्हें अभिषिक्त करते हैं ।
अप्रमत्त
गौतम को भगवान महावीर ने कहा था 'समय मात्र का प्रमाद मत करो' । भगवान के इस उपदेश को इस युग में मूर्तस्वरूप देखना है तो गुरुदेव के पास चले आइये ।
प्रात: बहुत जल्दी लगभग रात्रि के अन्तिम प्रहर के प्रारम्भ में उठकर ध्यान, स्मरण में मग्न हो जायेंगे । दैनिक चर्या में प्रवचन, धर्मचर्चा, स्वाध्याय प्रमुख हैं ।
दिन बारह घण्टे का हो या चौदह का, गुरुदेव श्री दिन में शयन नहीं करेंगे ।
कई बार दीर्घ विहार का प्रसंग भी आया, युवक संत भी थककर विश्राम करने लगे, उस स्थिति में गुरुदेव श्री को आग्रह भी किया कि थोड़ी देर लेट लें किन्तु नहीं । एक क्षण भी नहीं ।
वही रात्रि के द्वितीय प्रहर के प्रारम्भ के आस-पास शयन करते हैं। इससे पूर्व, सारा समय स्वाध्याय स्मरण और धर्मचर्चा या उपदेश में ही जाता है ।
तीन-चार घण्टा एक आसन पर बैठ कर चर्चा ध्यान और स्वाध्याय करते हुए तो इन्हें कोई भी लगभग प्रतिदिन देख सकता है ।
संवत्सरी आदि विशेष अवसर पर इन्हें आठ-आठ घण्टा एक आसन पर दृढ़ता से बैठे आज भी हजारों
व्यक्ति देखते हैं ।
ऐसे सुदृढ़ आसन के पीछे अप्रमत्तत्त्व का स्फूर्त आदर्श रहा हुआ है जो भगवान महावीर के द्वारा गौतम को
प्रदान किया गया ।
अकृत्रिम व्यवहार
प्रवर्तक श्री नितान्त सहज हैं। आप कहीं भी, कभी भी और कैसे भी मिलें ये बिलकुल अकृत्रिम मिलेंगे । वही हँसता मुस्कुराता चेहरा, वही सीधी सादी बातचीत, वही सामान्य बैठना चलना आदि ।
सम्प्रदाय के अगुआ, श्रमण संघ के मन्त्री और प्रवर्तक जैसे पदों पर काम करते हुए भी ऐसा कभी अनुभव नहीं किया करते कि मैं पूज्य पद पर हूँ तो मुझे वैसे ठाठ से रहना चाहिए ।
हमने देखा कई बार बच्चों से धार्मिक वार्तालाप और विनोद करते हुये उन्हें सामने बिठाकर स्वयं भी नीचे ही बैठ जायेंगे और उन्हें प्रबोध देते रहेंगे ।
आसन पट्ट आदि कोई मुनिराज लाकर लगा दे, वह अलग बात, किन्तु स्वयं कभी उसकी अपेक्षा नहीं करेंगे । गरीब-अमीर, बालक, बुड्डे सभी के साथ एक समान सहज व्यवहार । आचारांग की उस उक्ति को चरितार्थ करता है जिसमें कहा गया है कि-
"जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई ।
स्वयं में नूतन सृजन
अपने आप में नव सृजन, अर्थात् विचार-चिंतन तथा जीवन प्रक्रिया के क्षेत्र में स्वयं को ऊर्ध्वोदय की तरफ
फक
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