________________
२८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उपकरण वाला बन जाता है ।
एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं । या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है । या कभी गृह-दह के साथ जलकर समाप्त हो जाती है ।
इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त हो वह सुख खोज ता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है । वह मूढ विपर्यास को प्राप्त होता है ।
भगवान् ने यह बताया है । ये मूढ मनुष्य संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते । वे अतीरंगम हैं, तीर - किनारे तक पहुँचने में समर्थ नहीं होते । वे अपारंगम हैं, पार पहुँचने में समर्थ नहीं होते।
वह (मूढ) आदानीय (संयम-पथ) को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता । अपनी मूढता के कारण वह असत्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है ।
[८३] जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती ।
अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम-सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता । वह दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में में बार-बार भटकता रहता है । ऐसा में कहता हुं ।
| अध्ययन-३ उद्देसक-४ [८४] तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग-उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं । वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं । बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है । हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है । दुःख और सुख-प्रत्येक आत्मा का अपना-अपना है, यह जानकर (इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे) | कुछ मनुष्य, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, वे बार-बार भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं ।
[८५] यहाँ पर कुछ मनुष्यों को अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ-मात्रा हो जाती है । वह फिर उस अर्थ-मात्रा में आसक्त होता है । भोग के लिए उसकी रक्षा करता है । भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला. बन जाता है । फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते हैं, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं, वह अन्य प्रकार से नष्ट-विनष्ट हो जाती है । गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है । - अज्ञानी मनुष्य इस प्रकार दूसरों के लिए अनेक क्रूर कर्म करता हुआ (दुःखके हेतु का निर्माण करता है) फिर दुःखोदय होने पर वह मूढ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है ।
[८६] हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता का त्याग कर दे । उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है । जिस भोग-सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है । जो मनुष्य मोह की सघनता से आवृत हैं, ढंके हैं, वे इस तथ्य को -