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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद यह उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए समग्रता है, कि वह समस्त पदार्थों में संयत या पंचसमितियों से युक्त, ज्ञानादि-सहित अथवा स्वहित परायण होकर सदा प्रयत्नशील रहे ।ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१ उद्देशक-२ [३४४] वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन आदि आहार के विषय में यह जाने कि यह आहार अष्टमी पौषधव्रत के उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा अर्द्धमासिक, मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक
और पाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा ऋतुओं, ऋतुसन्धियों एवं ऋतु-परिवर्तनों के उत्सवों के उपलक्ष्य में (बना है, उसे) बहुत-से श्रमण, माहन, अतिथि, दरिद्र एवं भिखारियों को एक बर्तन से परोसते हुए देखकर, दो बर्तनों से, या तीन बर्तनों से एवं चार बर्तनों से परोसते हुए देखकर तथा संकड़े मुँह वाली कुम्भी और बाँस की टोकरी में से एवं संचित किए हुए गोरस आदि पदार्थों को परोसते हुए देखकर, जो कि पुरुषान्तरकृत नहीं है, यावत् आसेवित नहीं है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे । - और यदि ऐसा जाने कि यह आहार पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण कर ले।
[३४५] वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं -- उग्रकुल, भोगकुल, राज्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, बढ़ई-कुल, ग्रामरक्षककुल या तन्तुवायकुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अगर्हित हों, उन कुलों से प्रासुक और एषणीय अशनादि चतुर्विध आहार मिलने पर ग्रहण करे ।
[३४६] वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय वह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज तथा इन्द्र-महोत्सव, स्कन्ध, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग-महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, हृद, नदी, सरोवर, सागर या आकार सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न प्रकार के महोत्सव हो रहे हैं, अशनादि चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचकों को एक बर्तन में से, दो, तीन, या चार बर्तनों में से परोसा जा रहा है तथा घी, दूध, दही, तैल, गुड़ आदि का संचय भी संकड़े मुँह वाली कुप्पी में से तथा बांस की टोकरी या पिटारी से परोसा जा रहा है । इस प्रकार का आहार पुरुषान्तरकृत, घर से बाहर निकाला हुआ, दाता द्वारा अधिकृत्, परिभुक्त या आसेवित नहीं है तो ऐसे आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
यदि वह यह जाने कि जिनको (जो आहार) देना था, दिया जा चुका है, अब वहाँ, गृहस्थ भोजन कर रहे हैं, ऐसा देखकर (आहार के लिए वहाँ जाए), उस गृहपति की पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्री या पुत्रवधू, धायमाता, दास या दासी अथवा नौकर या नौकरानी को पहले से ही (भोजन करती हुई) देखे, (तब) पूछे- 'आयुष्मती । क्या मुझे इस भोजन में से कुछ दोगी ?' ऐसा कहने पर वह स्वयं अशनादि आहार लाकर साधु को दे अथवा वह गृहस्थ स्वयं