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आचार-२/१/७/२/४९४
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अवयव अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित हैं तथा तिरछे कटे हुए भी हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर वह ग्रहण कर सकता है ।
यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन के वन पर ठहरना चाहे तो पूर्वोक्त विधि से अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके रहे । किसी कारणवश लहसुन खाना चाहे तो पूर्व सूत्रवत् पूर्वोक्त विधिवत् ग्रहण कर सकता है । इसके तीनो आलापक पूर्व सूत्रवत् समझना ।
यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन, लहसुन का कंद, लहसुन की छाल या छिलका या रस अथवा लहसुन के गर्भ का आवरण खाना-पीना चाहे और उसे ज्ञात हो जाए कि यह लहसुन यावत् लहसुन का बीज अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, किन्तु तिरछा कटा हुआ नहीं तो भी उसे न ले, यदि तिरछा कटा हुआ हो तो पूर्ववत् प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ले सकता है ।
[४९५] साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे । पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे । अवगृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित स्थानदोषों का परित्याग करके निवास करे ।
भिक्षु इन सात प्रतिमाओं के माध्यम से अवग्रह ग्रहण करना जाने --
पहली प्रतिमा यह है - वह साधु पथिकशाला आदि स्थानों का सम्यक् विचार करके अवग्रह की पूर्ववत् विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा के स्पष्टीकरण सहित याचना करे । इसका वर्णन स्थान की नियत अवधि पूर्ण होने के पश्चात् विहार कर देंगे तक समझना ।
दूसरी प्रतिमा यह है - जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं अन्य भिक्षुओं के प्रयोजनार्थ अवग्रह की याचना करूँगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह-स्थान में निवास करूँगा । तृतीय प्रतिमा यों है- जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह-याचना करूँगा, परन्तु दूसरे भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह स्थान में नहीं ठहरूँगा ।
चौथी प्रतिमा यह है -- जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दुसरे भिक्षुओके लिए अवग्रह याचना नहीं करूंगा किन्तु दूसरे द्वारा याचित अवग्रहस्थान में निवास करुंगा । पांचवी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि में अपने प्रयोजन के लिए ही अवग्रह की याचना करूँगा, किन्तु दूसरे दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए नहीं ।
छठी प्रतिमा यों है - जो साधु जिसके अवग्रह की याचना करता है उसी अवगृहीत स्थान में पहले से ही रखा हुआ शय्या-संस्तारक मिल जाए, जैसे कि इक्कड़ यावत् पराल आदि; तभी निवास करता है । वैसे शय्या-संस्तारक न मिले तो उत्कटुक अथवा निषद्या-आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करता है ।
सातवीं प्रतिमा इस प्रकार है- ने जिस स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा ली हो, यदि उसी स्थान पर पृथ्वीशिला, काष्ठशिला तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज संस्तृत पृथ्वीशिला आदि न मिले तो वह उत्कटुक या निषद्या-आसन पूर्वक बैठकर रात्रि व्यतीत कर देता है । इन सात प्रतिमाओं में से जो साधु किसी प्रतिमा को स्वीकार करता है, वह इस प्रकार न कहे – मैं उग्राचारी हूँ, दूसरे शिथिलाचारी हैं, इत्यादि शेष समस्त वर्णन