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सूत्रकृत-१/१/२/३१
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[३१] इस प्रकार कहने वाले मूढ़/अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को पंडित मानते हैं । वे अज्ञ नहीं जानते कि कुछ सुख-दुःख नियत होते हैं और कुछ अनियत ।
[३२] इस प्रकार कुछ पार्श्वस्थ-नियतिवादी धृष्टता करते हैं । वे साधना पथ पर उपस्थित होकर भी स्वयं को दुःख से मुक्त नहीं कर सकते ।
[३३] जैसे वेगगामी मृग परितान से भयभीत और शान्त होकर अशंकित के प्रति शंका करते हैं और शंकित के प्रति अशंकी रहते हैं ।
[३४] वे मृगजाल के प्रति शंकास्पद और बन्धन के प्रति निःशंक होते हैं । वे अज्ञान और भय से उद्विग्न होकर इधर-उधर दौड़ते हैं ।
[३५] यदि वे मृग छलांग भरते हुए उस बन्धन को लांघ जाएँ या उसके नीचे से निकल जाये, तो वे पद-पाश से मुक्त हो सकते हैं, किन्तु वे मंदमति उसे देख नहीं पाते ।
[३६] वे अहितात्मा और हितप्रज्ञाशून्य मृग पाश/बन्धन-युक्त मार्ग से जाते हैं और उस बन्धन में बंधकर मृत्यु प्राप्त करते हैं | .
[३७] इस प्रकार कई मिथ्या-दृष्टि अनार्य श्रमण अशंकनीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति निःशंक रहते हैं ।।
[३८] वे मूढ़ अव्यक्त और अकोविद श्रमण धर्म के ज्ञापन में शंका करते हैं, किन्तु आरम्भों (हिंसाजन्य वृत्तियों) में शंका नहीं करते हैं ।
[३९] सर्वात्मक (लोभ), व्युत्कर्ष (अभिमान), णूम (माया), अप्रीतिक (क्रोध) को नष्टकर जीव अकर्माश हो जाता है, मृग समान अज्ञानी इस अर्थ को त्याग देता है ।
[४०] जो मिथ्यादृष्टि अनार्य पुरुष इस तथ्य को नहीं जानते, वे पाश-बद्ध मृग की तरह अनन्त बार नष्ट होते हैं ।
[४१] कुछेक ब्राह्मण और श्रमण अपने ज्ञान को सत्य कहते हैं । उनके अनुसार सम्पूर्ण लोक में उनके मत से जो भिन्न प्राणी हैं, वे कुछ भी नहीं जानते हैं ।
[४२] जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ की बातें करता है, किन्तु उसके हेतु को नहीं जानता, मात्र कथित का कथन करता है ।।
[४३] इसी प्रकार अज्ञानी (पूर्ण ज्ञान रहित) अपने-अपने ज्ञान को कहते हुए भी निश्चयार्थ को नहीं जानते । वे म्लेच्छ की तरह अबोधिक होते हैं ।
[४४] अज्ञानिकों का विमर्श अज्ञान में निश्चय नहीं करा सकता है । जब वे अपने आप पर अनुशासन नहीं कर पाते, तब दूसरों को कैसे अनुशासित कर सकते हैं ?
[४५] जैसे वन में दिग्भ्रमित पुरुष यदि दिग्भ्रमित नेता का ही अनुगमन करता है, तो वे दोनों अकोविद होने के कारण तीव्र स्त्रोत/जंगल में चले जाते हैं ।
[४६] अन्धा अन्धे को पथ पर ले जाते हुआ या तो दूर ले जाता है या उत्पथ पर चला जाता है अथवा अन्य पथ का अनुगमन कर लेता है ।
[४७] इसी प्रकार कुछ नियागार्थी/मोक्षार्थी कहते तो हैं कि हम धर्म के आराधक हैं, किन्तु वे अधर्म का सेवन करते हैं । वे सर्व-ऋजु-मार्ग पर नही चलते ।
[४८] कुछ लोग वितर्कों के कारण किसी अन्य की पर्युपासना नहीं करते । वे दुर्मति अपने वितर्को के कारण कहते हैं-यह मार्ग ही ऋजु है ।