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सूत्रकृत - २/३/-/६८१
वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं । तथा वे जीव त्रस और स्थावरप्राणियों
शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त प्रासुक एवं विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । उन अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों से युक्त, विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । स्वकृतकर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है ।
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[६८२] वनस्पतिकायजगत् में कई जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं । वे अध्यारूह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं में स्थित रहते हैं और बढ़ते हैं । वे अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर अध्यारूह वृक्षों में आते हैं और अध्यारूहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन अध्यारूयोनिक अध्यारूह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का भी आहार करते हैं । वे जीव त्रस और स्थावर जीवों के शरीर से रस खींच कर उन्हें अचित्त कर देते हैं । प्रासुक हुए उस शरीर को वे विपरिणामित करके अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । उन वृक्षों के मूल से लेकर बीज तक के जीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त, अनेक प्रकार के पुद्गलों से रचित अन्य शरीर भी होते हैं । वे स्व-स्वकर्मोदयवश ही इनमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा है ।
[ ६८३] वनस्पतिकायिक जगत् में कई प्राणी पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी में ही स्थित होकर उसी में संवर्धन पाते हैं । वे जीव स्वकर्मोदयवश ही नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वीयों पर तृणरूप में उत्पन्न होते हैं । वे तृण के जीव उन नाना जाति वाली पृथ्वीयों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीरों का आहार करते हैं । त्रस स्थावर जीवों के शरीरों को अचित्त, प्रासुक एवं स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । वे जीव कर्म से प्रेरित होकर ही पृथ्वीयोनिक तृण के रूप में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् । ऐसा कहा है ।
[६८४] इसी प्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव पृथ्वीयोनिक तृणों में तृण रूप से उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते, एवं संवृद्ध होते हैं । वे पृथ्वीयोनिक तृणों के शरीर का आहार करते हैं, इत्यादि समस्त वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।
[ ६८५] इसी तरह कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में तृणरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित एवं संवृद्ध होते हैं । वे जीव तृणयोनिक तृणों के शरीर का ही आहार ग्रहण करते हैं । शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझना ।
इसीप्रकार कई (वनस्पतिकायिक) जीव तृणयोनिक तृणों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीजरूप में उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते एवं संवृद्ध होते हैं । वे तृणयोनिक तृणों का आहार करते हैं । इन जीवों का शेष वर्णन पूर्ववत् । इसी प्रकार औषधिरूप में उत्पन्न जीवों के भी चार आलापक नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वीयों में औषधि विविध अन्नादि की पकी हुई फसल के रूप में, पृथ्वीयोनिक औषधियों में औषधि के रूप में, औषधियोनिक औषधियों में औषध के रूप में, एवं औषधियोनिक औषधियों में (मूल से बीज तक के रूप में) सारा वर्णन पूर्ववत् ।
इसी प्रकार हरितरूप में उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों के भी चार आलापक ( 9 )
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