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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
पचा कर अपने रूप में परिणत कर लेते । उन त्रस - स्थावरयोनि समुत्पन्न जलकायिक जीवों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आकार-प्रकार आदि के और भी अनेक शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकरोने कहा है ।
इस जगत् में कितने ही प्राणी जल से उत्पन्न होते हैं, जल में ही रहते हैं, और जल में ही बढ़ते हैं । वे अपने पूर्वकृतकर्म के प्रभाव से जल में जलरूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन त्रस स्थावर योनिको जलों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं तथा उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उस त्रस-स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले दूसरे शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है ।
इस जगत् में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्मों के वशीभूत होकर आते हैं । तथा उदकयोनिक उदकजीवों में उदकरूप में जन्म लेते हैं । वे जीव उन उदकयोनिक उदकों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि शरीरों को भी आहार ग्रहण करते हैं और उन्हें अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । उन उदकयोनिक उदकों के अनेक वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श एवं संस्थान वाले और भी शरीर होते हैं, ऐसा प्ररूपित है ।
इस संसार में अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से उदकयोनिक उदकों में आकर उनमें स प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं. 1. वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन उदकयोनिक त्रसप्राणियों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा बताया है । [६९१] इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर वहाँ किये हुए कर्मोदयवशात् नाना प्रकार के सस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अनिकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस स्थावरयोनिक अनिकायों के दूसरे भी शरीर बताये गये हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि के होते हैं । शेष तीन आलापक उदक के आलापकों के समान समझना ।
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[६९२] इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नाना प्रकार की योनियों में आकर वहाँ किये हुए अपने कर्म के प्रभाव से त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । वायुकाय के सम्बन्ध में शेष बातें तथा चार आलापक अग्निकाय समान समझना ।
[ ६९३] इस संसार में कितने ही जीव नानाप्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के त्रस स्थावरप्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी, शर्करा या बालू के रूप में उत्पन्न होते हैं । इस विषय में निम्न गाथाओं के अनुसार जानना ।
[ ६९४] पृथ्वी, शर्करा बालू, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, रांगा, तांबा, चांदी, शीशा, सोना और वज्र ।
[ ६९५ ] तथा हड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल, अभ्रपटल, अभ्रबालुका, ये सब पृथ्वीकाय के भेद हैं ।
[६९६] गोमेदक रत्न, रुचकतरन, अंकरन, स्फटिकरत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकतरत्न,