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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
करते हुए भी एकान्तवास की साधना कर लेते हैं। क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति उसी प्रकार की बनी रहती है ।
[ ७४२ ] श्रुत चारित्ररूप धर्म का उपदेश करने वाले भगवान् महावीर को कोई दोष नहीं होता, क्योंकि क्षान्त, दान्त, और जितेन्द्रिय तथा भाषा के दोषों को वर्जित करने वाले भगवान् महावीर के द्वारा भाषा का सेवन किया जाना गुणकर है ।
[ ७४३] कर्मों से सर्वथा रहित हुए श्रमण भगवान् महावीर श्रमणों के लिए पंच महाव्रत तथा (श्रावकों के लिए) पांच अणुव्रत एवं पांच आश्रवों और संवरों का उपदेश देते हैं । तथा श्रमणत्व के पालनार्थ वे विरति का उपदेश करते हैं, यह मैं कहता हूँ ।
[ ७४४ ] (गोशालक ने आर्द्रक मुनि से कहा-) कोई शीतल जल, बीजकाय, आधा कर्म तथा स्त्रियों का सेवन भले ही करता हो, परन्तु जो एकान्त विचरण करनेवाला तपस्वी साधक है, उसे हमारे धर्म में पाप नहीं लगता ।
[ ७४५] (आर्द्रक मुनि ने प्रतिवाद किया - ) सचित्त जल, बीजकाय, आधाकर्म तथा स्त्रियाँ, इनका सेवन करनेवाला गृहस्थ होता है, श्रमण नहीं हो सकता ।
[ ७४६ ] बीजकाय, सचित्त जल एवं स्त्रियों का सेवन करने वाले पुरुष भी श्रमण हों तो गृहस्थ भी श्रमण क्यों नहीं माने जाएँगे ? वे भी पूर्वोक्त विषयों का सेवन करते हैं । [ ७४७ ] ( अतः ) जो भिक्षु हो कर भी सचित्त, बीजकाय, ( सचित्त) जल एवं आधाकर्मदोष युक्त आहारादि का उपभोग करते हैं, वे केवल जीविका के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं । वे अपने ज्ञातिजनों का संयोग छोड़कर भी अपनी काया के ही पोषक हैं, वे अपने कर्मों का या जन्म-मरण रूप संसार का अन्त करनेवाले नहीं हैं ।
[७४८] (गोशालक ने पुनः कहा-) हे आर्द्रक ! इस वचन को कह कर तुम समस्त प्रावादुकों की निन्दा करते हो । प्रावादुकगण अपने-अपने धर्म सिद्धान्तों की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि प्रकट करते हैं ।
[ ७४९ ] ( आर्द्रक मुनि गोशालक से कहते हैं -) वे श्रमण और ब्राह्मण एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने धर्म की प्रशंसा करते हैं । अपने धर्म में कथित अनुष्ठान से ही पुण्य धर्म या मोक्ष होना कहते हैं, दूसरे धर्म में कथित क्रिया के अनुष्ठान से नहीं ।' हम उनकी दृष्टि की निन्दा करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं ।
[७५०] हम किसी के रूप, वेष आदि की निन्दा नहीं करते, अपितु हम अपनी दृष्टि से पुनीत मार्ग को अभिव्यक्त करते हैं । यह मार्ग अनुत्तर है, और आर्य सत्पुरुषों ने इसे ही निर्दोष कहा है ।
[७५१] ऊर्ध्वदिशा अधोदिशा एवं तिर्यक् दिशाओं में जो जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं, उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी की निन्दा नहीं करते ।
[७५२ ] ( गोशालक ने आर्द्रकमुनि से कहा-) तुम्हारे श्रमण ( महावीर) अत्यन्त भीरु हैं, इसीलिए पथिकागारों में तथा आरामगृहों में निवास नहीं करते, उक्त स्थानों में बहुत-से मनुष्य ठहरते हैं, जिनमें कोई कम या कोई अधिक वाचाल होते हैं, कोई मौनी होते हैं । [७५३] कई मेघावी, कई शिक्षा प्राप्त, कई बुद्धिमान् औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से