Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 245
________________ २४४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद क्रोध या लोभ के वश होकर दूसरे को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हैं; ऐसा मेरा विचार है । क्या हमारा यह उपदेश न्याय-संगत नहीं है ? आयुष्मान् गौतम ! क्या आपको भी हमारा यह मन्तव्य रुचिकर लगता है ? [७९९] भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ से सद्भावयुक्तवचन, या वाद सहित इस प्रकार कहा-"आयुष्मन् उदक ! हमें आपका इस प्रकार का यह मन्तव्य अच्छा नहीं लगता । जो श्रमण या माहन इस प्रकार कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण या निर्ग्रन्थ यथार्थ भाषा नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं । वे लोग श्रमणों और श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं, तथा जो प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के विषय में संयम करते-कराते हैं, उन पर भी वे दोषारोपण करते हैं । किस कारण से ? (सनिये,) समस्त प्राणी परिवर्तनशील होते हैं । त्रस प्राणी स्थावर के रूप में आते हैं, इसी प्रकार स्थावर जीव भी त्रस के रूप में आते हैं । अतः जव वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रसजीवघात-प्रत्याख्यानी पुरुषों द्वारा हनन करने योग्य नहीं होते । [८००] उदक पेढालपुत्र ने सद्भावयुक्त वचनपूर्वक भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-“आयुष्मन् गौतम ! वे प्राणी कौन-से हैं, जिन्हें आप त्रस कहते हैं ? आप त्रस. प्राणी को ही त्रस कहते हैं, या किसी दूसरे को ?" भगवान् गौतम ने भी सद्वचनपूर्वक उदक पेढालपुत्र से कहा-“आयुष्मन् उदक ! जिन प्राणियों को आप त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम त्रसप्राणी कहते हैं और हम जिन्हें त्रसप्राणी कहते हैं, उन्हीं को आप त्रसभूत कहते हैं । ये दोनों ही शब्द एकार्थक हैं । फिर क्या कारण है कि आप आयुष्मान् त्रसप्राणी को 'त्रसभूत' कहना युक्तियुक्त समझते हैं, और त्रसप्राणी को ‘त्रस' कहना युक्तिसंगत नहीं समझते; जबकि दोनों समानार्थक हैं । ऐसा करके आप एक पक्ष की निन्दा करते हैं और एक पक्ष का अभिनन्दन करते हैं । अतः आपका यह भेद न्यायसंगत नहीं है । आगे भगवान् गौतमस्वामी ने उदक पेढालपुत्र से कहा-आयुष्मन् उदक ! जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो साधु के निकट आ कर उनसे पहले ही इस प्रकार कहते हैं"भगवन् ! हम मुण्डित हो कर अर्थात्-समस्त प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृहत्याग करके आगार धर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में सभी समर्थ नहीं हैं, किन्तु हम क्रमशः साधुत्व का अंगीकार करेंगे, अर्थात्-पहले हम स्थूल प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करेंगे, उसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात का त्याग करेंगे । तदनुसार वे मन में ऐसा ही निश्चय करते हैं और ऐसा ही विचार प्रस्तुत करते हैं । तदनन्तर वे राजा आदि के अभियोग का आगार रख कर गृहपति-चोर-विमोक्षणन्याय से त्रसप्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं । वह (त्रसप्राणिवध का) त्याग भी उन (श्रमणोपासकों) के लिए अच्छा ही होता है । [८०१] स जीव भी त्रस सम्भारकृत कर्म के कारण त्रस कहलाते हैं । और वे त्रसनामकर्म के कारण ही त्रसनाम धारण करते हैं । और जब उनकी त्रस की आयु परिक्षीण हो जाती है तथा त्रसकाय में स्थितिरूप कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं; और त्रस का आयुष्य छोड़ कर वे स्थावरत्व को प्राप्त करते हैं । स्थावर जीव भी स्थावरसम्भारकृत कर्म के कारण स्थावर कहलाते हैं; और वे स्थावरनामकर्म के कारण ही स्थावरनाम धारण करते हैं और जब उनकी स्थावर की आयु परिक्षीण हो जाती है, तथा

Loading...

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257