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सूत्रकृत-२/७/-/८०१
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स्थावरकाय में उनकी स्थिति की अवधि पूर्ण हो जाती है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं । वहाँ से उस आयु को छोड़ कर पुनः वे त्रसभाव को प्राप्त करते हैं । वे जीव प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय भी होते हैं और चिरकाल तक स्थिति वाले भी ।
[८०२] (पुनः) उदक पेढालपुत्र ने वाद पूर्वक भगवान गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् गौतम ! (मेरी समझ से) जीव की कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जिसे दण्ड न दे कर श्रावक अपने एक भी प्राणी के प्राणतिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान को सफल कर सके ! उसका कारण क्या है ? (सुनिये) समस्त प्राणी परिवर्तनशील हैं, (इस कारण) कभी स्थावर प्राणी भी त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और कभी त्रसप्राणी स्थावररूप में उत्पन्न हो जाते हैं । (ऐसी स्थिति में) वे सबके सब स्थावरकाय को छोड़ कर त्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, और कभी त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं । अतः स्थावरकाय में उत्पन्न हुए सभी जीव उन (त्रसकायजीववध-त्यागी) श्रावकों के लिए घात के योग्य हो जाते हैं ।
भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से युक्तिपूर्वक कहा-आयुष्मन् उदक ! हमारे वक्तव्य के अनुसार तो यह प्रश्न ही नहीं उठता आपके वक्तव्य के अनुसार (यह प्रश्न उठ सकता है,) परन्तु आपके सिद्धान्तानुसार थोड़ी देर के लिए मान लें कि सभी स्थावर एक ही काल में त्रस हो जाएँगे तब भी वह (एक) पर्याय (त्रसरूप) अवश्य है, जिसके रहते (त्रसघातत्यागी) श्रमणोपासक सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के घात का त्याग सफल होता है । इसका कारण क्या है ? (सुनिये), प्राणिगण परिवर्तनशील हैं, इसलिए त्रस प्राणी जैसे स्थावर के रूप उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्थावर प्राणी भी त्रस के रूप उत्प्न हो जाते हैं । अतः जब वे सब त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वह स्थान (समस्त त्रसकायीय प्राणिवर्ग) श्रावकों के घातयोग्य नहीं होता । वे प्राणी भी कहलाते हैं और वस भी कहलाते हैं । वे विशालकाय भी होते हैं और चिरकाल तक की स्थिति वाले भी । वे प्राणी बहुत हैं, जिनमें श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल सुप्रत्याख्यान होता है । तथा (आपके मन्तव्यानुसार उस समय) वे प्राणी (स्थावर) होते ही नहीं जिनके लिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता । इस प्रकार वह श्रावक महान् त्रसकाय के घात से उपशान्त, (स्व-प्रत्याख्यान में) उपस्थित तथा (स्थूलहिंसा से) प्रतिविरत होता है । ऐसी स्थिति में आप या दूसरे लोग, जो यह कहते हैं कि (जीवों का) एक भी पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का एक भी प्राणी के प्राणातिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान यथार्थ एवं सफल हो सके । अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है ।
[८०३] भगवान् गौतम कहते हैं कि मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है-'आयुष्मान् निर्ग्रन्थो! इस जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं; वे इस प्रकार वचनबद्ध होते हैं कि 'ये जो मुण्डित हो कर, गृह त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हैं, इनको आमरणान्त दण्ड देने का मैं त्याग करता हूँ परन्तु जो ये लोग गृहवास करते हैं, उनको मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग मैं नहीं करता । अब मैं पूछता हूँ कि प्रव्रजित श्रमणों में से कई श्रमण चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या बहुत-से देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहवास कर सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-“हाँ, वे पुनः गृहस्थ बन सकते हैं।'
भगवान् गौतम-"श्रमणों के घात का त्याग करने वाले उस प्रत्याख्यानी व्यक्ति का