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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
प्रत्याख्यान क्या उस गृहस्थ बने हुए व्यक्ति का वध करने से भंग हो जाता है ? निर्ग्रन्थ"नहीं, यह बात सम्भव ( शक्य ) नहीं है । श्री गौतमस्वामी - इसी तरह श्रमणोपासक ने त्रस प्राणियों को दण्ड देने ( वध करने) का त्याग किया है, स्थावर प्राणियों को दण्ड देने का त्याग नहीं किया । इसलिए स्थावरकाय में वर्त्तमान (स्थावरकाय को प्राप्त भूतपूर्व त्रस ) का वध करने से भी उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । निर्ग्रन्थो ! इसे इसी तरह समझो, इसे इसी तरह समझना चाहिए ।
भगवान् श्री गौतमस्वामी ने आगे कहा कि निर्ग्रन्थों से पूछना चाहिए कि “आयुष्मान् निर्ग्रन्थो ! इस लोक में गृहपति या गृहपतिपुत्र उस प्रकार के उत्तम कुलों में जन्म ले कर धर्मश्रवण के लिए साधुओं के पास आ सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे आ सकते हैं ।' श्री गौतमस्वामी - "क्या उन उत्तमकुलोत्पन्न पुरुषों को धर्म का उपदेश करना चाहिए ?" निर्ग्रन्थ'हाँ, उन्हें धर्मोपदेश किया जाना चाहिए ।'
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श्री गौतमस्वामी- क्या वे उस धर्म को सुन पर, उस पर विचार करके ऐसा कह सकते हैं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर है, केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, परिपूर्ण है, सम्यक् प्रकार से शुद्ध है, न्याययुक्त है 'माया-निदान- मित्या- दर्शनरूपशल्य को काटने वाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्याण मार्ग है, निर्वाण मार्ग है, अवितथ है, सन्देहरहित है, समस्त दुःखों को नष्ट करने का मार्ग है; इस धर्म में स्थित हो कर अनेक जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, तथा समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । अतः हम धर्म की आज्ञा के अनुसार, इसके द्वारा विहित मार्गानुसार चलेगे, स्थित होगें, बैठेंगे, करवट बदलेंगे, भोजन करेंगे, तथा उठेंगे । उसके विधानानुसार घर बार आदि का त्याग कर संयमपालन के लिए अभ्युद्यत होंगे, तथा समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा के लिए संयम धारण करेंगे । क्या वे इस प्रकार कह सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ वे ऐसा कह सकते हैं ।'
श्री गौतमस्वामी - "क्या इस प्रकार के विचार वाले वे पुरुष प्रव्रजित करने योग्य हैं ? " निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे प्रव्रजित करने योग्य हैं ।' श्री गौतमस्वामी - " क्या इस प्रकार के विचार वाले वे व्यक्ति मुण्डित करने योग्य हैं ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ वे मुण्डित किये जाने योग्य हैं ।' श्री गौतमस्वामी - "क्या वे वैसे विचार वाले पुरुष शिक्षा देने के योग्य हैं ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे शिक्षा देने के योग्य हैं ।' श्री गौतमस्वामी - "क्या वैसे विचार वाले साधक महाव्रतारोपण करने योग्य हैं ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ, वे उपस्थापन योग्य हैं ।' श्री गौतमस्वामी - "क्या प्रव्रजित होकर उन्होंने समस्त प्राणियों, तथा सर्वसत्त्वों को दण्ड देना छोड़ दिया ?" निर्ग्रन्थ- 'हाँ, उन्होंने सर्वप्राणियों की हिंसा छोड़ दी ।'
[८०४] भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा - 'मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है"आयुष्मान् निर्ग्रन्थों ! इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएँ किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों से चल कर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निर्ग्रन्थ- 'हाँ, आ सकती हैं ।' श्री गौतमस्वामी - "क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश देना चाहिए ?” निर्ग्रन्थ-‘हाँ, उन्हें धर्मोपदेश देना चाहिए ।' श्री गौतमस्वामी - "धर्मोपदेश सुन कर यदि उन्हें वैराग्य हो जाए तो क्या वे प्रव्रिजत करने, मुण्डित करने, शिक्षा देने या महाव्रतारोहण करने