Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 244
________________ सूत्रकृत-२/७/-/७९४ २४३ दिन प्रतिपूर्ण पोषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता हुआ श्रावकधर्म का आचरण करता था । वह श्रमणो को तथाविध शास्त्रोक्त ४२ दोषों से रहित निर्दोष एषणीय अशन-पान-खाद्यस्वाद्यरूप चतुर्विध के दान से प्रतिलाभित करता हुआ, बहुत से शील, गुणव्रत, तथा हिंसादि से विरमणरूप अणुव्रत, तपश्चरण, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास आदि से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ धर्माचरण में रत रहता था । [७९५] उस लेप गाथापति की वहीं शेषद्रव्या नाम की एक उदक शाला थी, जो राजगह की बाहिरिका नालन्दा के बाहर उत्तरपूर्व-दिशा में स्थित थी । वह उदकशाला अनेक प्रकार के सैंकड़ों खंभों पर टिकी हुई, मनोरम एवं अतीव सुन्दर थी । उस शेषद्रव्या नामक उदकशाला के ईशानकोण में हस्तियाम नाम का एक वनखण्ड था । वह वनखण्ड कृष्णवर्णसा था । (शेष वर्णन औपपातिक-सूत्रानुसार जानना ।) [७९६] उसी वनखण्ड के गृहप्रवेश में भगवान् गौतम गणधर ने निवास किया । (एक दिन) भगवान गौतम उस वनखण्ड के अधोभाग में स्थित आराम में विराजमान थे । इसी अवसर में मेदार्यगोत्रीय एवं भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी का शिष्य-संतान निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र जहाँ भगवान् गौतम बिराजमान थे, वहाँ उनके समीप आए । उन्होंने भगवान् गौतमस्वामी के पास आकर सविनय यों कहा-“आयुष्मन् गौतम ! मुझे आप से कोई प्रदेश पूछना है, आपने जैसा सुना है, या निश्चित किया है, वैसा मुझे विशेषवाद सहित कहें ।" इस प्रकार विनम्र भाषा में पूछे जाने पर भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से यों कहा-" हे आयुष्मान् ! आपका प्रश्न सुन कर और उसके गुण-दोष का सम्यक् विचार करके यदि मैं जान जाऊंगा तो उत्तर दूंगा । [७९७] सद्वचनपूर्वक उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम स्वामी से कहा-“आयुष्मन् गौतम ! कुमारपुत्र नाम के श्रमण निर्ग्रन्थ हैं, जो आपके प्रवचन का उपदेश करते हैं । जब कोई गृहस्थ श्रमणोपासक उनके समीप प्रत्याख्यान ग्रहण करने के लिए पहुंचता है तो वे उसे इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं-'राजा आदि के अभियोग के सिवाय गाथापति त्रस जीवों को दण्ड देने का त्याग है । परन्तु जो लोग इस प्रकार से प्रत्याख्यान करते हैं, उनका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है; तथा इस रीति से जो प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी दुष्प्रत्याख्यान करते हैं; क्योंकि इस प्रकार से दूसरे को प्रत्याख्यान कराने वाले साधक अपनी प्रतिज्ञा का उलंघन करते हैं । प्रतिज्ञाभंग किस कारण से हो जाता है ? (वह भी सुन लें;) सभी प्राणी संसरणशील हैं । जो स्थावर प्राणी हैं, वे भविष्य में त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तथा जो त्रसप्राणी हैं, वे भी स्थावररूप में उत्पन्न हो जाते है । (अतः) त्रसप्राणी जब स्थावरकाय में उत्पन्न होते हैं, तब त्रसकाय के जीवों को दण्ड न देने की प्रतिज्ञा किये उन पुरुषों द्वारा (स्थावरकाय में उत्पन्न होने से) वे जीव घात करने के योग्य हो जाते हैं । [७९८] किन्तु जो (गृहस्थ श्रमणोपासक) इस प्रकार प्रत्याख्यान करते हैं, उनका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है; तथा इस प्रकार से जो दूसरे को प्रत्याख्यान कराते हैं, वे भी अपनी प्रतिज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते । वह प्रत्याख्यान इस प्रकार है-'राजा आदि के अभियोग को छोड़ कर वर्तमान में त्रसभूत प्राणियों को दण्ड देने का त्याग है । इसी तरह 'त्रस' पद के बाद 'भूत' पद लगा देने से ऐसे भाषापराक्रम के विद्यमान होने पर भी जो लोग

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