Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 243
________________ २४२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद के लिए वर्ष में एक बड़े हाथी को बाण से मार कर वर्ष भर उसके मांस से अपना जीवनयापन करते हैं । [७९०] (आर्द्रकमुनि कहते हैं-) जो वर्षभर में भी एक प्राणी को मारे, वे भी दोषों से निवृत्त नहीं हैं । क्योंकि शेष जीवों के वध में प्रवृत्त न होने के कारण थोड़े-से जीवों को हनन करने वाले गृहस्थ भी दोषरहित क्यों नहीं माने जाएँगे ? [७९१] जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्षभर में एक-एक प्राणी को मारता है, उस पुरुष को अनार्य कहा गया है । ऐसे पुरुष केवलज्ञानी नहीं हो पाते ।। [७९२]] तत्त्वदर्शी भगवान् की आज्ञा से इस समाधियुक्त धर्म को अंगीकार करके तथा सम्यक् प्रकार से सुस्थित होकर तीनों करणों से विरक्ति रखता हुआ साधक आत्मा का त्राता बनता है । अतः महादुस्तर समुद्र की तरह संसारसमुद्र को पार करने के लिए आदानरूप धर्म का निरूपण एवं ग्रहण करना चाहिए | -ऐसा मैं कहता हुँ । अध्ययन-६ कामुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-७ नालंदीय) [७९३] धर्मोपदेष्टा तीर्थंकर महावीर के उस काल में तथा उस समय में राजगृह नाम का नगर था । वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था, यावत् बहुत ही सुन्दर था । उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग में नालन्दा नाम की बाहिरिका-उपनगरी थी । वह अनेकसैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् प्रतिरूप थी। [७९४] उस नालन्दा नामक बाहिरिका में लेप नामक एक गाथापति रहता था, वह बड़ा ही धनाढ्य, दीप्त और प्रसिद्ध था । वह विस्तीर्ण विपुल भवनों, शयन, आसन, यान एवं वाहनों से परिपूर्ण था । उसके पास प्रचुर धन सम्पत्ति व बहुत-सा सोना एवं चांदी थी। वह धनार्जन के उपायों का ज्ञाता और अनेक प्रयोगों में कुशल था । उसके यहाँ से बहुतसा आहार-पानी लोगों को वितरित किया जाता था । वह बहुत-से दासियों, दासों, गायों, भैंसों और भेड़-बकरियों का स्वामी था । तथा अनेक लोगों से भी पराभव नहीं पाता था । वह लेप नामक गाथापति श्रमणोपासक भी था । वह जीव अजीव का ज्ञाता था । आश्रव-संवर, वेदना, निर्जरा, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के तत्त्वज्ञान में कुशल था । वह देवगणों से सहायता नहीं लेता था, न ही देवगण उसे धर्म से विचलित करने में समर्थ थे । वह लेप श्रमणोपासक था, अन्य दर्शनों की आकांक्षा या धर्माचरण की फलाकांक्षा से दूर था, उसे धर्माचरण के फल में कोई सन्देह न था, अथवा गुणी पुरुषों की निन्दा-जुगुप्सा से दूर रहता था । वह लब्धार्थ था, वह गृहीतार्थ था, वह पृष्टार्थ था, अतएव वह विनिश्चितार्थ था । वह अभिगृहीतार्थ था । धर्म या निर्ग्रन्थप्रवचन के अनुराग में उसकी हडिडयाँ और नसें (स्में) रंगी हुई थीं । 'यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, यही परमार्थ है, इसके अतिरिक्त शेष सभी (दर्शन) अनर्थरूप हैं । उसका स्फटिकसम निर्मल यश चारों ओर फैला हुआ था । उसके घर का मुख्याद्वार याचकों के लिए खुला रहता था । राजाओं के अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था इतना वह विश्वस्त था । वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के

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