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सूत्रकृत - २/५/-/७३१
साधु और असाधु दोनों हैं, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए ।
[ ७३२] कोई भी कल्याणवान् और पापी नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए अपितु कल्याणवान् एवं पापात्मा दोनों हैं, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए ।
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[७३३] यह व्यक्ति एकान्त कल्याणवान् है, और यह एकान्त पापी है, ऐसा व्यवहार नहीं होता, (तथापि ) बालपण्डित श्रमण कर्मबन्धन नहीं जानते ।
[ ७३४] जगत् के अशेष पदार्थ अक्षय हैं, अथवा एकान्त अनित्य हैं, तथा सारा जगत् एकान्तरूप से दुःखमय है, एवं अमुक प्राणी वध्य है, अमुक अवध्य है, ऐसा वचन भी साधु को (मुंह से ) नहीं निकालना चाहिए ।
[ ७३५] साधुतापूर्वक जीनेवाले, सम्यक् आचारवंत निर्दोष भिक्षाजीवी साधु दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए ऐसी दृष्टि नहीं रखनी चाहिए कि साधुगण कपट से जीविका करते हैं । [ ७३६] मेघावी साधु को ऐसा कथन नहीं करना चाहिए कि दान का प्रतिलाभ अमुक से होता है, अमुक से नहीं होता, अथवा तुम्हें आज भिक्षालाभ होगा या नहीं ? किन्तु जिससे शान्ति की वृद्धि होती हो, ऐसा वचन कहना चाहिए ।
[७३७] इस प्रकार इस अध्ययन में जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट या उपलब्ध स्थानों के द्वारा अपने आपको संयम में स्थापित करता हुआ साधु मोक्ष प्राप्त होने तक (पंचाचार पालन में) प्रगति करे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ५ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन - ६ आर्द्रकीय
[ ७३८] (गोशालक ने कहा-) हे आर्द्रक ! महावीर स्वामी ने पहले जो आचरण किया था, उसे सुनो पहले वे एकान्त विचरण करते थे और तपस्वी थे । अब वे अनेक भिक्षुओं को साथ रख कर पृथक्-पृथक् विस्तार से धर्मोपदेश देते हैं ।
[७३९] उस अस्थिर महावीर ने यह तो अपनी आजीविका बना ली है । वह जो सभा में जाकर अनेक भिक्षुगण के बीच बहुत से लोगों के हित के लिए धर्मोपदेश देते हैं, उनका वर्त्तमान व्यवहार उनके पूर्व व्यवहार से मेल नहीं खाता ।
[७४०] इस प्रकार या तो महावीरस्वामी का पहला व्यवहार एकान्त विचरण ही अच्छा हो सकता है, अथवा इस समय का अनेक लोगों के साथ रहने का व्यवहार ही अच्छा हो सकता है । किन्तु परस्पर विरुद्ध दोनों आचरण अच्छे नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है ।
[गोशालक के आक्षेप का आर्द्रकमुनि ने इस प्रकार समाधान किया-] श्रमण भगवान् महावीर पूर्वकाल में, वर्त्तमान काल में और भविष्यत्काल में (सदैव ) एकान्त का ही अनुभव करते हैं । अतः उनके आचरण में परस्पर मेल है ।
[ ७४१] बारह प्रकार की तपःसाधना द्वारा आत्मशुद्धि के लिए श्रम करने वाले ( श्रमण) एवं ' जीवों को मत मारो' का उपदेश देने वाले भ० महावीर स्वामी समग्र लोक को यथावस्थित जानकर स-स्थावर जीवों के क्षेम के लिए हजारों लोगों के बीच में धर्मोपदेश