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सूत्रकृत-२/४/-/७०४
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या पीड़ित किया जाऊं, यहाँ तक कि मेरा केवल एक रोम उखाड़ा जाए तो मैं हिंसाजनित दुःख, भय और असाता का अनुभव करता हूँ, इसी तरह जानना चाहिए कि समस्त प्राणी यावत् सभी सत्त्व डंडे आदि से लेकर ठीकरे तक से मारे जाने पर एवं पीड़ित किये जाने पर, यहाँ तक कि एक रोम भी उखाड़े जाने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं । ऐसा जानकर समस्त प्राणियों यावत् सभी सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, यहाँ तक कि उन्हें पीड़ित नहीं करना चाहिए । यह धर्म ही ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, तथा लोक के स्वभाव को सम्यक् जानकर खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ तीर्थंकरदेवों द्वारा प्रतिपादित है ।
यह जान कर साधु प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों से विरत होता है । वह साधु दाँत साफ करने वाले काष्ठ आदि से दांत साफ न करे; तथा नेत्रों में अंजन न लगाए, न दवा लेकर वमन करे, और न ही धूप के द्वारा अपने वस्त्रों या केशों को सुवासित करे । वह साधु सावधक्रियारहित, हिंसारहित, क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित, उपशान्त एवं पाप से निवृत्त होकर रहे । ऐसे त्यागी प्रत्याख्यानी साधु को तीर्थंकर भगवान् ने संयत, विरत, पापकर्मों का प्रतिघातक, एवं प्रत्याख्यानकर्ता, अक्रिय, संवृत और एकान्त पण्डित कहा है । (जो भगवान् ने कहा है) 'वही मैं कहता हूं।'
अध्ययन-४ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-५ आचारश्रुत) [७०५] आशुप्रज्ञ साधक इस अध्ययन के वाक्य तथा ब्रह्मचर्य को धारण करके इस धर्म में अनाचार का आचरण कदापि न करे ।
[७०६] 'यह लोक अनादि और अनन्त है,' यह जान कर विवेकी पुरुष यह लोक एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य, इस प्रकार की दृष्टि, एकान्त (बुद्धि) न रखे ।
[७०७] इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य) पक्षों से व्यवहार चल नहीं सकता । अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के आश्रय को अनाचार जानना चाहिए ।
[७०८] प्रशास्ता भवोच्छेद कर लेंगे । अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश है, बद्ध रहेंगे, शाश्वत रहेंगे, इत्यादि एकान्त वचन नहीं बोलने चाहिए ।
[७०९] क्योंकि इन दोनों पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक) व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए ।
[७१०] जो क्षुद्र प्राणी है, अथवा जो महाकाय प्राणी हैं, इन दोंनो प्राणियों के साथ समान ही वैर होता है, अथवा नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए ।
[७११] क्योंकि इन दोनों ('समान वैर होता है या नहीं होता';) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तवचनों को अनाचार जानना चाहिए ।
[७१२] आधाकर्म दोष युक्त आहारादि का जो साधु उपभोग करते हैं, वे दोनो परस्पर अपने कर्म से उपलिप्त होते हैं, अथवा उपलिप्त नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए ।
[७१३] इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिये इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का आश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए ।