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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
पूर्वोक्त प्रकार के गर्भ में उत्पन्न होते हैं । फिर वे जीव गर्भ में माता के आहार के एकदेश को ओज- आहार के रूप में ग्रहण करते हैं । इस प्रकार वे क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हो कर गर्भ के परिपक्व होने पर माता की काया से बाहर निकल कर कोई अण्डे के रूप में होते हैं, तो कोई पोत के रूप में होते हैं । जब वह अंडा फूट जाता है तो कोई स्त्री के रूप में, कोई पुरुष के रूप में और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जलचर जीव बाल्यावस्था में आने I पर जल के स्नेह का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस - स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं, एवं उन्हें पचा कर क्रमशः अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के दूसरे भी नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, नाना आकृति एवं अवयव रचना वाले तथा नाना पुद्गलों से रचित अनेक शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकरोने कहा है ।
इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने स्थलचर चतुष्पद तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में बताया है, जैसे कि कई स्थलचर चौपाये पशु एक खुर वाले, कई दो खुर वाले, कई गण्डीपद और कई नखयुक्त पद वाले होते हैं । वे जीव अपने-अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पन्न होते हैं । स्त्री-पुरुष का कर्मानुसार परस्पर संयोग होने पर वे जीव चतुष्पद स्थलचरजाति के गर्भ में आते हैं । वे माता और पिता दोनों के स्नेह का पहले आहार करते हैं । उस गर्भ में वे जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में होते हैं । वे जीव माता के ओज और पिता
शुक्र का आहार करते हैं । शेष सब बातें पूर्ववत् । इनमें कोई स्त्री के रूप में, कभी नर के रूप में और को नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव बाल्यावस्था में माता के दूध और धृत का आहार करते हैं । बड़े होकर वे वनस्पतिकाय का तथा दूसरे त्रस - स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे प्राणी पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं । फिर वे आहार किये हुए पदार्थों को पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उन स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक चतुष्पद जीवों के विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार एवं रचना वाले दूसरे अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है ।
इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने उरपरिसर्प, स्थलचर, पंचेन्द्रिय, तिर्यञ्चयोनिक जीवों का वर्णन किया है । जैसे कि सर्प, अजगर, आशालिक और महोरग आदि उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव हैं । वे जीव अपने-अपने उत्पत्तियोग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं । इन प्राणियों में भी स्त्री और पुरुष का परस्पर मैथुन नामक संयोग होता है, उस संयोग के होने पर कर्मप्रेरित प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी नियत योनि में उत्पन्न होते हैं । शेष बातें पूर्ववत् । उनमें से कई अंडा देते हैं, कई बच्चा उत्पन्न करते है । उस अंडे के फूट जाने पर उसमें से कभी स्त्री होती है, कभी नर पैदा होता है, और कबी नपुंसक होता है । वे जीव बाल्यावस्था में वायुकाय का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पतिकाय तथा अन्य त्रस - स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी के शरीर से लेकर वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं, फिर उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उन उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकृति एवं संस्थान वाले अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा कहा है । इसके पश्चात् भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के विषय में श्री