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सूत्रकृत-२/३/-/६७५
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तथा उस-उस अवकाश में उत्पन्न होते हैं । इस दृष्टि से कई बीज कायिक जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, उसी पर स्थित रहते हैं और उसी पर उनका विकास होता है ।
इसलिए पृथ्वीयोनिक, पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले और उसी पर स्थित रहने व बढ़ने वाले वे जीव कर्म के वशीभूत होकर तथा कर्म के निदान से आकर्षित होकर वहीं वृद्धिगत होकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वीयों पर वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति की योनियों वाली पृथ्वीयों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी शरीर अप्शरीर तेजःशरीर, वायु शरीर और वनस्पति-शरीर का आहार करते हैं । तथा वे पृथ्वी जीव नाना-प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । वे आदि के अत्यन्त विध्वस्त उस शरीर को कुछ प्रासुक कुछ परितापित कर देते हैं, वे इन के पूर्व-आहारित किया था, उसे अब भी त्वचास्पर्श द्वारा आहार करते हैं, तत्पश्चात उन्हें स्वशरीर के रूप में विपरिणत करते हैं । और उक्त विपरिणामित शरीर को स्व स्वरूप कर लेते हैं । इस प्रकार वे सर्व दिशाओं से आहार करते हैं ।
उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के दूसरे शरीर भी अनेक वर्ण, अनेक गन्ध, नाना रस, नाना स्पर्श के तथा नाना संस्थानों से संस्थित एवं नाना प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होकर बनते हैं । वे जीव कर्मों के उदय के अनुसार स्थावरयोनि में उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
[६७६] इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने पहले बताया है, कि कई सत्त्व वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, अतएव वे वृक्षयोनिक होते हैं, वृक्ष में स्थित रह कर वहीं वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वृक्षयोनिक, वृक्ष में उत्पन्न, उसी में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करने वाले कर्मों के उदय के कारण वे जीव कर्म से आकृष्ट होकर पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों से उनके स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । वे नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर डालते हैं । वे परिविध्वस्त किये हुए एवं पहले आहार किये हुए, तथा त्वचा द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि शरीरों को विपरिणामित कर अपने अपने समान स्वरूप में परिणत कर लेते हैं । वे सर्व दिशाओं से आहार लेते हैं । उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, अनेक प्रकार के संस्थानों से युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं, जो अनेक प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होते हैं । वे जीव कर्म के उदय के अनुरूप ही पृथ्वीयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थंकर देव ने कहा है ।
[६७७] इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों का अन्य भेद बताया है । इसी वनस्पतिकायवर्ग में कई जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थिति एवं वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वृक्षयोनिक जीव कर्म के वशीभूत होकर कर्म के ही कारण उन वृक्षों में आकर वृक्षयोनिक जीवों में वृक्षरूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह को आहार करते हैं । इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं । वे त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर देते हैं । परिविध्वस्त किये हुए तथा पहले आहार किये हुए और पीछे त्वचा के द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचा कर अपने रूप में मिला लेते हैं ।