Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 222
________________ सूत्रकृत-२/२/-/६७१ २२१ है, अनार्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाश न करने वाला एकान्त मिथ्या और बुरा है । इनमें से जो दूसरा स्थान है, जिसमें व्यक्ति सब पापों से विरत होता है, वह अनारम्भ स्थान एवं आर्य है, यावत् समस्त दुःखों का नाशक है, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम है । तथा इनमें से जो तीसरा स्थान है, जिसमें सब पापों से कुछ अंश में विरति और कुछ अंश में अविरति होती है, वह आरम्भ-नो आरम्भ स्थान है । यह स्थान भी आर्य है, यहाँ तक कि सर्वदुःखों का नाश करने वाला, एकान्त सम्यक् एवं उत्तम है । [६७२] सम्यक् विचार करने पर ये तीनों पक्ष दो ही स्थानों में समाविष्ट हो जाते हैंजैसे कि धर्म में और अधर्म में, उपशान्त और अनुपशान्त में । पहले जो अधर्मस्थान का विचार पूर्वोक्त प्रकार से किया गया है, उसमें इन ३६३ प्रावादुकों का समावेश हो जाता है, यह पूर्वाचार्यों ने कहा है । वे इस प्रकार हैं-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी । वे भी ‘परिनिर्वाण' का प्रतिपादन करते हैं; वे भी मोक्ष का निरूपण करते हैं; वे भी अपने श्रावकों को धर्मोपदेश करते हैं वे भी अपने धर्म को सुनाते हैं ।। [६७३] वे पूर्वोक्त प्रावादुक अपने-अपने धर्म के आदि-प्रवर्तक हैं । नाना प्रकार की बुद्धि, नाना अभिप्राय, विभिन्न शील, विविध दृष्टि, नानारुचि, विविध आरम्भ, और विभिन्न निश्चय रखने वाले वे सभी प्रावादुक एक स्थान में मंडलीबद्ध होकर बैठे हों, वहाँ कोई पुरुष आग के अंगारों से भरी हुई किसी पात्री को लोहे की संडासी से पकड़ कर लाए, और नाना प्रकार की प्रज्ञा, अभिप्राय, शील, दृष्टि, रुचि, आरम्भ, और निश्चय वाले, धर्मों के आदि प्रवर्तक उन प्रावादुकों से कहे-"अजी ! नाना प्रकार की बुद्धि आदि तथा विभिन्न निश्चय वाले धर्मों के आदिप्रवर्तक प्रावादुको! आप लोग आग के अंगारों से भरी हुई पात्री को लेकर थोड़-थोड़ी देर तक हाथ में पकड़े रखें, संडासी की सहायता न लें, और न ही आग को बुझाएँ या कम करें, अपने साधार्मिकों की वैयावृत्य भी न कीजिए, न ही अन्य धर्म वालों की वैयावृत्य कीजिए, किन्तु सरल और मोक्षाराधक बनकर कपट न करते हुए अपने हाथ पसारिए ।' यों कह कर वह पुरुष आग के अंगारों से पूरी भरी हुई उस पात्री को लोहे की संडासी से पकड़कर उन प्रावादुकों के हाथ पर रखे । उस समय धर्म के आदि प्रवर्तक तथा नाना प्रज्ञा, शील अध्यवसाय आदि से सम्पन्न वे सब प्रावादुक अपने हाथ अवश्य ही हटी लेंगे ।" यह देख कर वह पुरुष उन प्रावादुकों से इस प्रकार कहे-'प्रावादुको ! आप अपने हाथ को क्यों हटा रहे हैं ?' “इसीलिए कि हाथ न जले !' (हम पूछते हैं-) हाथ जल जाने से क्या होगा? यही कि दुःख होगा । यदि दुःख के भय से आप हाथ हटा लेते हैं तो यही बात आप सबके लिए अपने समान मानिए, यही सबके लिए प्रमाण मानिए यही धर्म का सार-सर्वस्व समझिए । यही बात. प्रत्येक के लिए तुल्य समझिए, यही युक्ति प्रत्येक के लिए प्रमाण मानिए, और इसी को प्रत्येक के लिए धर्म का सार-सर्वस्व समझिए । धर्म के प्रसंग में जो श्रमण और माहन ऐसा कहते हैं, यावत ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करना चाहिए उन पर आज्ञा चलाना चाहिए, उन्हें दास-दासी आदि के रूप में रखना चाहिए, उन्हें परिताप, क्लेश, उपद्रवित करना चाहिए । ऐसा करने वाले वे भविष्य में 'अपने शरीर को छेदन-भेदन आदि पीड़ाओं का भागी बनाते हैं । वे भविष्य में जन्म, जरा, मरण, विविध योनियों में उत्पत्ति फिर संसार में पुनः

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