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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद जन्म गर्भवास, और सांसारिक प्रपंच में पड़कर महाकष्ट के भागी होंगे । वे घोर दण्ड के भागी होंगे । वे बहुत ही मुण्डन, तर्जन, ताड़न, खोड़ी बन्धन के यहाँ तक कि घोले (पानी में डुबोए) जाने के भागी होंगे । तथा माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू
आदि मरण दुःख के भागी होंगे | वे दरिद्रता, दुर्भाग्य, अप्रिय व्यक्ति के साथ निवास, प्रियवियोग, तता बहुत-से दुःखों और वैमनस्यों के भागी होंगे । वे आदि-अन्तरहित तथा दीर्धकालिक चतुर्गतिक संसार रूप घोर जंगल में बार-बार परिभ्रमण करते रहेंगे । वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होंगे, न ही बोध को प्राप्त होंगे, यावत् सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकेंगे । जैसे सावध अनुष्ठान करने वाले अन्यतीर्थिक सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते, वैसे ही सावद्यानुष्ठानकर्ता स्वयूथिक भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते, वे भी पूर्वोक्त अनेक दुःखों के भागी होते हैं । यह कथन सबके लिए तुल्य है, यह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है यही सारभूत विचार है । यह प्रत्येक प्राणी के लिए तुल्य है, प्रत्येक के लिए यह प्रमाण सिद्ध है, तथा प्रत्येक के लिए यही सारभूत विचार है ।
परन्तु धर्म-विचार के प्रसंग में जो सुविहित श्रमण एवं माहन यह कहते हैं कि-समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, उन्हें अपनी आज्ञा में नहीं चलाना एवं उन्हें बलात् दास-दासी के रूप में पकड़ कर गुलाम नहीं बनाना चाहिए, उन्हें डरानाधमकाना या पीड़ित नहीं करना चाहिए, वे महात्मा भविष्य में छेदन-भेदन आदि कष्टों को प्राप्त नहीं करेंगे, वे जन्म, जरा, मरण, अनेक योनियों में जन्म-धारण, संसार में पुनः पुनः जन्म, गर्भवास तथा संसार के अनेकविध प्रपंच के कारण नाना दुःखों के भाजन नहीं होंगे । तथा वे आदि-अन्तरहित, दीर्ध कालिक मध्यरूप चतुर्गतिक संसाररूपी गोर वन में बारबार भ्रमण नहीं करेंगे । वे सिद्धि को प्राप्त करेंगे, केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर बुद्ध और मुक्त होंगे, तथा समस्त दुःखों का सदा के लिए अन्त करेंगे ।
[६७४] इन बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीत में सिद्ध नहीं हुए, बुद्ध नहीं हुए, मुक्त नहीं हुए यावत् सर्व-दुःखों का अन्त न कर सके, वर्तमान में भी वे सिद्ध, यावत् सर्वदुःखान्तकारी नहीं होते और न भविष्य में सिद्ध यावत् सर्वदुःखान्तकारी होंगे । परन्तु इस तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वान्तकृत् हुए हैं, होते हैं और होंगे । इस प्रकार वह आत्मार्थी, आत्महिततत्पर, आत्मगुप्त, आत्मयोगी, आत्मभाव में पराक्रमी, आत्मरक्षक, आत्मानुकम्पक, आत्मा का जगत् से उद्धार करने वाला उत्तम साधक अपनी आत्मा को समस्त पापों से निवृत्त करे । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-२ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-३ आहारपरिज्ञा) [६७५] आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् श्री महावीर स्वामी ने कहा था इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में आहारपरिज्ञा अध्ययन है, जिसका अर्थ यह है-इस समग्र लोक में पूर्व
आदि दिशाओं तथा ऊर्ध्व आदि विदिशाओं में सर्वत्र चार प्रकार के बीज काय वाले जीव होते हैं, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज । उन बीज कायिक जीवों में जो जिस प्रकार के बीज से, जिस-जिस अवकाश से उत्पन्न होने की योग्यता रखते हैं, वे उस उस बीज से