Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ २०६ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद वह दूसरे से त्रस और स्थावर प्राणी को वह दण्ड दिलाता है, या त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए दूसरे पुरुष का अनुमोदन करता है । ऐसा व्यक्ति प्राणियों को हिंसारूप दण्ड देता है । उस व्यक्ति को हिंसाप्रत्ययिक सावद्यकर्म का बन्ध होता है । [६५२] इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद् दण्डप्रत्ययिक है । जैसे कि कोई व्यक्ति नदी के तट पर अथवा द्रह पर यावत् किसी घोर दुर्गम जंगल में जा कर मृग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है मृग का वध करने के लिए जल पड़ता है; 'यह मृग है' यों जान कर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है, किन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण लक्ष्य को न लग कर तीतर, बटेर, चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिंजल पक्षी को लग कर उन्हें बींध डालता है । ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है, वह दण्ड इच्छा न होने पर भी अकस्मात् हो जाता है इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड क्रियास्थान कहते हैं । जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल नामक धान्यों को शोधन करता हुआ किसी तृण को काटने के लिए शस्त्र चलाए, और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद आदि घास को काटू' ऐसा आशय होने पर भी शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है । इस प्रकार अन्य वस्तु को लक्ष्य करके किया हुआ दण्ड अन्य को स्पर्श करता है । यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है । इस प्रकार अकस्मात् दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को सावद्यकर्म का बन्ध होता है । [६५३] इसके पश्चात् पाँचवाँ क्रियास्थान दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिक है । जैसे कोई व्यक्ति अपने माता, पिता भाइयों, बहनों, स्त्री, पुत्रों, पुत्रियों या पुत्रवधुओं के साथ निवास करता हुआ अपने उस मित्र को शत्रु समझ कर मार देता है, इसको दृष्टिविपर्यासदण्ड कहते हैं, क्योंकि यह दण्ड दृष्टिभ्रमवश होता है । जैसे कोई पुरुष ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मण्डप, द्रोण-मुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी पर घात के समय किसी चोर से भिन्न को चोर समझ कर मार डाले तो वह दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है । इस प्रकार जो पुरुष अहितैषी या दण्ड्य के भ्रम से हितैषी जन या अदण्ड्य प्राणी को दण्ड दे बैठता है, उसे उक्त दृष्टिविपर्यास के कारण सावद्यकर्मबन्ध होता है । [६५४] इसके पश्चात् छठे क्रियास्थान मृषाप्रत्ययिक है । जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए घर के लिए अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है, दूसरे से असत्य बुलवाता है, तथा असत्य बोलते हुए का अनुमोदन करता है; ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य प्रवृत्ति - निमित्तक पाप कर्म का बन्ध होता है । [६५५] इसके पश्चात् सातवाँ क्रियास्थान अदत्तादानप्रत्ययिक है । जैसे कोई व्यक्ति अपने लिए, अपनी ज्ञाति के लिए तथा अपने परिवार के लिए अदत्त - स्वयं ग्रहण करता है, दूसरे से को ग्रहण कराता है, और अदत्त ग्रहण करते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, तो ऐसा करने वाले उस को अदत्तादान-सम्बन्धित सावध कर्म का बन्ध होता है । [६५६] इसके बाद आठवाँ अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान है । जैसे कोई ऐसा पुरुष

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257