________________
२०४
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
विशिष्ट शयनीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए धर्मोपदेश न करे, तथा दूसरे विविध प्रकार के कामभोगों की प्राप्ति के लिए धर्म कथा न करे । प्रसन्नता से धर्मोपदेश करे । कर्मों की निर्जरा के उद्देश्य के सिवाय अन्य किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे ।
इस जगत् में उस भिक्षु से धर्म को सुन कर, उस पर विचार करके सम्यक् रूप से उत्थित वीर पुरुष ही इस आर्हत धर्म में उपस्थित होते हैं । जो वीर साधक उस भिक्षु धर्म को सुन-समझ कर सम्यक् प्रकार से मुनिधर्म का आचरण करने के लिए उद्यत होते हुए इस धर्म में दीक्षित होते हैं, वे सर्वोपगत हो जाते हैं, वे सर्वोपरत हो जाते हैं, वे सर्वोपशान्त हो जाते हैं, एवं वे समस्त कर्मक्षय करके परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं । यह मैं कहता हूँ । इस प्रकार वह भिक्षु धर्मार्थी धर्म का ज्ञाता और नियाग को प्राप्त होता है ।
ऐसा भिक्षु, जैसा कि पहले कहा गया था, पूर्वोक्त पुरुषों में से पांचवाँ पुरुष है । वह श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान निर्वाण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से ) प्राप्त न कर सके । इस प्रकार का भिक्षु कर्म का परिज्ञाता, संग का परिज्ञाता, तथा गृहवास का परिज्ञाता हो जाता है । वह उपशान्त, समित, सहित एवं सदैव यतनाशील होता है । उस साधक को इस प्रकार कहा जा सकता है, जैसे कि वह श्रमण है, या माहन है, अथवा वह क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, तथा महर्षि है, अथवा मुनि, कृती, तथा विद्वान् है, अथवा भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी चरण- करण के रहस्य का पारगामी है । ऐसा मैं कहता हूं ।
अध्ययन - १ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन - २ क्रियास्थान
[६४८ ] हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन आयुष्मान् श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा था - निर्ग्रन्थ प्रवचन में 'क्रियास्थान' अध्ययन है, उसका अर्थ यह है- इस लोक में सामान्य रूप से दो स्थान बताये जाते हैं, एक धर्म-स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान ।
इन दोनों स्थानों में से प्रथम अधर्मपक्ष का जो विभंग है उसका अर्थ इस प्रकार है'इस लोक में पूर्व आदि छहों दिशाओं में अनेकविध मनुष्य रहते हैं, जैसे कि कई आर्य होते हैं, कई अनार्य, अथवा कई उच्चगोत्रीय होते हैं, कई नीचगोत्रीय अथवा कई लम्बे कद के और कई ठिगने (छोटे) कद के या कई उत्कृष्ट वर्ण के और कई निकृष्ट वर्ण के अथवा कई सुरूप और कई कुरूप होते हैं । उन आर्य आदि मनुष्यों में यह दण्ड का समादान देखा जाता है, जैसे कि - नारकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में, अथवा जो इसी प्रकार के विज्ञ प्राणी हैं, वे सुख-दुःख का वेदन करते हैं, उनमें अवश्य ही ये तेरह प्रकार के क्रियास्थान होते हैं, ऐसा कहा है । अर्थदण्ड, अनर्थदण्ड, हिंसादण्ड, अकस्मात् दण्ड, दृष्टिविपर्यासदण्ड, मृषाप्रत्ययिक, अदत्तादानप्रत्ययिक, अध्यात्मप्रत्ययिक, मानप्रत्ययिक, मित्रद्वेषप्रत्ययिक, मायाप्रत्ययिक, लोभप्रत्ययिक और ईर्ष्याप्रत्ययिक |
[६४९] प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे