Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 206
________________ सूत्रकृत - २/२/- /६४९ २०५ कि कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए, अपने घर या परिवार के लिए, मित्रजनों के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष आदि के लिए स्वयं त्रस और स्थावर जीवों को दण्ड देता है; अथवा दूसरे से दण्ड दिलवाता है; अथवा दूसरा दण्ड दे रहा हो, उसका अनुमोदन करता है । ऐसी स्थिति में उसे उस सावद्यक्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है । 1 [६५०] इसके पश्चात् दूसरा दण्डसमादानरूप क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कोई पुरुष ऐसा होता है, जो इन त्रसप्राणियों को न तो अपने शरीर की अर्चा के लिए लिए मारता है, न चमड़े के लिए, न ही मांस के लिए और न रक्त के लिए मारता है । एवं हृदय के लिए, पित्त के लिए, चर्बी के लिए, पिच्छ पूंछ, बाल, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, नाड़ी, हड्डी और हड्डी की मज्जा के लिए नहीं मारता । तथा इसने मुझे या मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, अथवा मार रहा है या मारेगा इसलिए नहीं मारता एवं पुत्रपोषण, पशुपोषण तथा अपने घर की मरम्मत एवं हिफाजत के लिए भी नहीं मारता, तथा श्रमण और माहन के जीवन निर्वाह के लिए, एवं उनके या अपने शरीर या प्राणों पर किञ्चित् उपद्रव न हो, अतः परित्राणहेतु भी नहीं मारता, अपितु निष्प्रयोजन ही वह मूर्ख प्राणियों को दण्ड देता हुआ उन्हें मारता है, छेदन करता है, भेदन करता है, अंगों को अलग-अलग करता है, आँखे निकालता है, चमड़ी उधेड़ता है, डराता-धमकाता है, अथवा परमाधार्मिकवत् पीड़ा पहुंचाता है, तथा प्राणों से रहित भी कर देता है । वह सद्विवेक का त्याग करके या अपना आपा खो कर तथा निष्प्रयोजन त्रस प्राणियों को उत्पीड़ित करने वाला वह मूढ़ प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है । कोई पुरुष ये जो स्थावर प्राणी हैं, जैसे कि इक्कड़, कठिन, जन्तुक, परक, मयूरक, मुस्ता, तृण, कुश, कुच्छक पर्वक और पलाल नामक विविध वनस्पतियाँ होती हैं, उन्हें निरर्थक दण्ड देता है । वह इन वनस्पतियों को पुत्रादि के या पशुओं के पोषणार्थ, या गृहरक्षार्थ, अथवा श्रमण एवं माहन के पोषणार्थ दण्ड नहीं देता, न ही ये वनस्पतियाँ उसके शरीर की रक्षा के लिए कुछ काम आती हैं, तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खण्डन, मर्दन, उत्पीड़न, करता है, उन्हें भय उत्पन्न करता है, या जीवन से रहित कर देता है । विवेक को तिलांजलि दे कर वह मूढ़ व्यर्थ ही प्राणियों को दण्ड देता है और उन प्राणियों के साथ वैर का भागी बन जाता है । जैसे कोई पुरुष नदी के कच्छ पर, द्रह पर, या किसी जलाशय में, अथवा तृणराशि पर, तथा नदी आदि द्वारा घिरे हुए स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में अथवा किसी गहन में, वन में या घोर वन में, पर्वत पर या पर्वत के किसी दुर्गम स्थान में तृण या घास को बिछाबिछा कर अथवा ऊंचा ढेर करके, स्वयं उसमें आग लगाता है, अथवा दूसरे से आग लगवाता है, अथवा इन स्थानों पर आग लगाते हुए अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, वह पुरुष निष्प्रयोजन प्राणियों को दण्ड देता है । इस प्रकार उस पुरुष को व्यर्थ ही प्राणियों के घात के कारण सावध कर्म का बन्ध होता है । [६५१] इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहलाता है । जैसे कि कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए स्वयं दण्ड देता है कि इस जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा अथवा

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