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सूत्रकृत-२/२/-/६६१
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है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने और रखने की समिति से युक्त है, जो लघु नीति, बड़ी नीति, थूक, कफ, नाक के मैल आदि के परिष्ठापन की समिति से युक्त है, जो मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त है, जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त है, जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं, जिसका ब्रह्मचर्य नौ गुप्तियों से गुप्त है, जो साधक उपयोग सहित गमन करता है, उपयोगपूर्वक खड़ा होता है, बैठता है, करवट बदलता है, भोजन करता है, बोलता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि को ग्रहण करता है ओर उपयोगपूर्वक ही इन्हें रखता-उठाता है, यहाँ तक कि आँखों की पलकें भी उपयोगसहित झपकाता है ।
ऐसे साधु में विविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐपिथिकी क्रिया होती है, जिसे वह करता है । उस ऐपिथिकी क्रिया का प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श होता है, द्वितीय समय में उसका वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा होती है । इस प्रकार वह ईर्यापथिकी क्रिया क्रमशः बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित , वेदित और निर्जीण होती है । फिर आगामी समय में वह अकर्मता को प्राप्त होती है ।
इस प्रकार वीतराग पुरुष के पूर्वोक्त ईपिथिक क्रिया के कारण असावद्य कर्म का बन्ध होता है । इसीलिए इस तेरहवें क्रियास्थान को ऐपिथिक कहा गया है । मैं कहता हूं कि भूतकाल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जितने तीर्थंकर हैं, और भविष्य में जितने भी तीर्थंकर होंगे, उन सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का कथन किया है, करते हैं तथा करेंगे, इसी प्रकार भूतकालीन तीर्थंकरों ने इन्हीं क्रियास्थानों की प्ररूपणा की है, वर्तमान तीर्थंकर करते हैं तथा भविष्यकालिक तीर्थंकर इन्हीं की प्ररूपणा करेंगे । इसी प्रकार प्राचीन तीर्थंकरों ने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान तीर्थंकर इसी का सेवन करते हैं और भविष्य में होने वाले तीर्थंकर भी इसी का सेवन करेंगे ।
[६६२] इसके पश्चात् पुरुषविजय अथवा पुरुषविचय के विभंग का प्रतिपादन करूंगा । इस मनुष्यक्षेत्र में या प्रवचन में नाना प्रकार की प्रज्ञा, नाना अभिप्राय, नाना प्रकार के शील विविध दृष्टियों, अनेक रुचियों नाना प्रकार के आरम्भ तथा नाना प्रकार के अध्यवसायों से युक्त मनुष्यों के द्वारा अनेकविध पापशास्त्रों का अध्ययन किया जाता है । वे इस प्रकार हैं- भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन, स्त्रीलक्षण, पुरुषलक्षण, हयलक्षण, गजलक्षण, गोलक्षण, मेषलक्षण, कुक्कुटलक्षण, तित्तिरलक्षण, तकलक्षण, लावकलक्षण, चक्रलक्षण, छत्रलक्षण, चर्मलक्षण, दण्डलक्षण, असिलक्षण, मणि-लक्षण, काकिनीलक्षण, सुभगाकर, दुर्भगाकर, गर्भकरी, मोहनकरी, आथर्वणी, पाकशासन, द्रव्यहोम, क्षत्रियविद्या, चन्द्रचरित, सूर्यचरित, शुक्रचरित, बृहस्पतिचरित, उल्कापात, दिग्दाह, मृगचक्र, वायंसपरिमण्डल, पासुवृष्टि, केशवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि, वैताली, अर्द्धवैताली, अवस्वापिनी, तालोद्घाटिनी, श्वपाकी, शाबरीविद्या, द्राविड़ी विद्या, कालिंगी विद्या, गौरीविद्या, गान्धारी विद्या, अवपतनी, उत्पतनी, जृम्भणी, स्तम्भनी, श्लेषणी, आमयकरणी, विशल्यकरणी, प्रक्रमणी, अन्तर्धानी,
और आयामिनी इत्यादि अनेक विद्याओं का प्रयोग वे भोजन और पेय पदार्थों के लिए, वस्त्र के लिए, आवास-स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए तथा अन्य नाना प्रकार के कामभोगों की प्राप्ति के लिए करते हैं । वे इन प्रतिकूल वक्र विद्याओं का सेवन करते हैं । वस्तुतः