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सूत्रकृत-१/७/-/३९८
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ऐसे सिद्धि प्राप्त होती तो अग्निस्पर्शी कुकर्मी भी सिद्ध हो जाते ।
[३९९] अपरीक्षित दृष्टि से सिद्धि नहीं है । वे अबुध्यमान मनुष्य घात प्राप्त करेंगे । अतः त्रस और स्थावर प्राणियों के सुख का प्रतिलेख कर बोध प्राप्त करो |
[४००] विविधकर्मी प्राणी रुदन करते हैं, लुप्त होते हैं और त्रस्त होते हैं । अतः विद्वान्, विरत और आत्मगुप्त भिक्षु त्रसजीवों को देखकर संहार से निवृत हो जाये ।
[४०१] जो धर्म से प्राप्त आहार का संचय कर भोजन करते हैं, शरीर-संकोच कर स्नान करता है, वस्त्र धोता है अथवा मलता है वह नग्नता से दूर कहा गया है ।
[४०२] धीर पुरुष जल में कर्म जानकर मोक्ष पर्यन्त अचित्त जल से जीवन यापन करे । वह बीज, कंद आदि का अनुपभोगी स्नान एवं स्त्री आदि से विरत रहे ।
[४०३] जो माता-पिता, गृह, पुत्र, पशु एवं धन का त्यागकर के भी स्वादिष्टभोजी कुलों की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर कहा गया है ।
[४०४] जो स्वादिष्ट भोजी कुलों की ओर दौड़ता है, उदरपूर्ति के लिए अनुगृद्ध होकर धर्म-आख्यान करता है, भोजन के लिए आत्म-प्रशंसा करता है, वह आर्यों का शतांशी है ।
[४०५] जो अभिष्क्रमित होकर भोजन के लिए दीन होता है, गृद्ध होकर दाता की प्रशंसा करता है, वह आहार गृद्ध सुअर-विशेष की तरह शीघ्र ही विनष्ट होता है ।।
[४०६] जो इहलौकिक अन्नपान के लिए प्रिय वचन बोलता है, वह पार्श्वस्थ भाव और कुशीलता का सेवन करता है वह वैसे ही निःसार होता है, जैसे धान के छिलके ।
[४०७] [मुनि] अज्ञानपिण्ड की एषणा करे, सहन करे, तप से पूजा का आकांक्षी न बने । शब्दों और रूपों में अनासक्त रहे । सभी कामों से गृद्धि दूर करे ।
[४०८] धीर भिक्षु सभी संसर्गों का त्यागकर, सभी दुःखों को सहन करता हुआ अखिल अगृद्ध अनिकेतचारी अभयंकर और निर्मल चित्त बने ।
[४०९] मुनि [संयम] भार वहन करने के लिए भोजन करे । पाप के विवेक की इच्छा करे, दुःख से स्पृष्ट होने पर शांत रहे और संग्रामशीर्ष की तरह कामनाओं को दमे ।
[४१०] परीषहों से हन्यमान भिक्षु फलक की तरह शरीर कृश होने पर काल की आकांक्षा करता है । मैं ऐसा कहता हूँ कि वह कर्म-क्षय करने पर वैसे ही प्रपंच मैं/संसार में गति नहीं करता, जैसे धुरा टूटने पर गाड़ी नहीं चलती । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-८ वीर्य) [४११] स्वाख्यात वीर्य दो प्रकार का कहा गया है । वीर का वीरत्व क्या है ? उन्हें वीर क्यों कहा जाता है ?
[४१२] सुव्रतों ने कर्म वीर्य और अकर्मवीर्य प्रतिपादित किया है । इन्हीं दो स्थानों में मर्त्य/प्राणी दिखाई देते हैं । . [४१३] प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है । बाल या पंडित तो भाव की अपेक्षा से से होता है ।
[४१४] कई लोग प्राणियों के अतिपात के लिए शस्त्र-प्रशिक्षण करते हैं । कई लोग