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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[५५१] हिंसा से उद्विग्न होने के कारण जीव जुगुप्सित होते हैं । न वे हिंसा करते हैं न करवाते हैं । वे धीर सदैव संयम की ओर झुके रहते हैं । कुछ लोग मात्र वाग्वीर होते हैं ।
[५५२] जो लोक में बाल-वृद्ध सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता है, एवं इस महान् लोक की उपेक्षा करता है वह बुद्ध अप्रमत्त पुरुषों में पखिजन करे ।
[५५३] जो स्वतः या परतः जानकर स्वहित या परहित में समर्थ होता है, जो धर्म का अनुवेक्षण कर के प्रादुर्भाव करता है, उस ज्योतिर्भूत की सन्निधि में सदा रहना चाहिये ।
[५५४] जो आत्मा, लोक, आगति, अनागति, शाश्वत, अशाश्वत, जन्म-मरण, च्यवन और उपपात को जानता है ।
[५५५] जो प्राणियों के अंधो विवर्तन, आस्त्रव, संवर, दुःख और निर्जरा को जानता है, वही क्रिया-वाद का प्ररुपण कर सकता है ।
[५५६] जो शब्दों, रूपों, रसों और गंधों में राग-द्वेष नहीं करता, जीवन और मरण की अभिकांक्षा नहीं करता, इन्द्रियों का संवर करता है वह इन्द्रियजयी परावर्तन से विमुक्त है । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-१२ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-१३ यथातथ्य) [५५७] नानाविध उत्पन्न पुरुष के लिए मैं यथार्थ का निरूपण करूँगा । मैं सत्असत्, धर्म-शील, शांति और अशांति को प्रगट करूँगा ।।
[५५८] दिन-रात समुत्थित-तथागतो/तीर्थकरों से धर्म-प्राप्त कर आख्यात् समाधि का सेवन न करने वाले असाधु अपने शास्ता को कठोर शब्द कहते हैं ।
[५५९] जो विशोधिका कहते हुए आत्मबुद्धि से विपरीत अर्थ प्ररुपित करता है । जो ज्ञान में शंकित होकर मिथ्या बोलता है । वह अनेक गुणों का अस्थानिक है ।
[५६०] जो पूछने पर [आचार्य का] नाम छिपाते हैं वे आदानीय अर्थ का वंचन करते हैं । वे असाधु होते हुए भी स्वयं को साधु मानते हैं । वे मायावी अनन्तघात पाते हैं ।
[५६१] जो क्रोधी है, वह अशिष्टभाषी है, जो अनुपशान्त पापकर्मी उपशान्त की उदीरणा करता है वह दण्डपथ को ग्रहण कर फँस जाता है ।
[५६२] जो कलहकारी और ज्ञातभाषी है वह कलहरित, समभावी, अवपातकारी, लज्जालु, एकान्तदृष्टि और छद्म से मुक्त नहीं हैं ।
[५६३] जो पुरुष जात प्रिय और परिमित बोलता है । वह जात्यान्वित और सरल परिणामी आचार्य द्वारा बहुशः अनुशासित होने पर भी समभावी और कलहसे दूर रहता है |
[५६४] जो बिना परीक्षा किये स्वयं को संयमी और ज्ञानी मानकर आत्मोत्कर्ष दिखाता है एवं मैं श्रेष्ठ तपस्वी हूँ ऐसा मानकर दूसरे लोगों को प्रतिबिम्ब की तरह मानता है ।
[५६५] वह एकान्त मोह वश परिभ्रमण करता है । मौनपद/मुनिपद में गोत्र नहीं होता है । जो सम्मानार्थ उत्कर्ष दिखाता है, वह ज्ञानहीन अबुद्ध है ।
[५६६] जो ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातीय हैं व उग्रपुत्र लिच्छवी है, पर जो प्रव्रजित