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सूत्रकृत-१/१२/-/५३५
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(अध्ययन-१२ समवसरण [५३५] क्रिया, अक्रिया तीसरा विनय और चौथा अज्ञान-ये चार समवसरण है, जिसे प्रावादुक/प्रवक्ता पृथक्-पृथक् प्रकार से कहते हैं ।
[५३६] अज्ञानवादी कुशल होते हुए भी प्रशंसनीय नहीं हैं । वे विचिकित्सा से तीर्ण नहीं है । वे अकोविद हैं, अतः अकोविदों में बिना विमर्श किये मिथ्या भाषण करते हैं ।
[५३७] सत्य का असत्य चिन्तन करने वाले, असाधु को साधु कहने वाले अनेक विनयवादी हैं, जो पूछने पर विनय को प्रमाण बतलाते हैं ।
[५३८] ऐसा वे [विनयवादी] अज्ञानवश कहते हैं कि हमें यही अर्थ अवभाषित होता है । अक्रियावादी भविष्य और क्रिया का कथन नहीं करते ।
[५३९] वह सम्मिश्रभावी अपनी वाणी से गृहीत है । जो अननुवादी है वह मौनव्रती होता है । वह कहता है यह द्विपक्ष है, यह एक पक्ष है । कर्म को पंडायतन मानता है ।
[५४०] वे अनभिज्ञ अक्रियवादी विविध रूपों का आख्यान करते हैं, जिसे स्वीकार कर अनेक मनुष्य अपार संसार में भ्रमण करते हैं ।
[५४१] एक मत यह है कि सूर्य न उदित होता है और न अस्त । चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है । नदियाँ प्रवाहित नहीं है । हवा चलती नहीं है क्योकि सम्पूर्ण लोक अर्थ शून्य एवं नियत हैं ।
. [५४२] जैसे नेत्रहीन अन्धा प्रकाश होने पर भी रूपों को नहीं देख पाता है वैसे ही निरुद्धप्रज्ञ अक्रियवादी क्रिया को भी नहीं देख पाते हैं ।
[५४३] इस लोक में अनेक पुरुष अन्तरिक्ष, स्वप्निक, लाक्षणिक, नैमितिक, दैहिक, औत्पातिक आदि अष्टांग शास्त्रों का अध्ययनकर अनागत को जान लेते हैं ।
[५४४] किन्हीं को निमित्त यथातथ्य ज्ञात है । किन्हीं का ज्ञान तथ्य के विपरीत है । जो विद्याभाव से अनभिज्ञ हैं, वे विद्या से मुक्त होने का आदेश देते हैं ।
[५४५] तीर्थकर लोक की समीक्षाकर श्रमणों एवं माहणों को यथातथ्य बतलाते हैं । दुःख स्वयंकृत है अन्यकृत नहीं । प्रमोक्ष विद्या/ज्ञान और चरण/चारित्र से है ।
[५४६] इस संसार में वे ही लोकनायक हैं जो दृष्टा है तथा जो प्रजा के लिए हितकर मार्ग का अनुशासन करते हैं । हे मानव ! जिसमें प्रजा आसक्त है यथार्थतः वही शाश्वत लोक कहा गया है।
[५४७] जो राक्षस, यमलौकिक, असुर, गंधर्वकायिक आकाशगामी एवं पृथ्वीआश्रित प्राणी है । वे विपर्यास प्राप्त करते हैं ।।
[५४८] जिसे अपारगसलिल-प्रवाह कहा गया है, उस गहन संसार को दुर्मोक्ष जानो । जिसमें विषय और अंगनाओं से परुष विषण्ण है और लोक में अनुसंचरण करते हैं ।
[५४९] अज्ञानी कर्म से कर्म-क्षय नहीं कर सकते । धीर अकर्म से कर्म का क्षय करते हैं । मेघावी पुरुष लोभ और मद से अतीत हैं । सन्तोषी पाप नहीं करते हैं ।
[५५०] वे [सर्वज्ञ] लोक के अतीत, वर्तमान और अनागत के यथार्थ-ज्ञाता हैं । वे अनन्य संचालित/आत्मनियन्ता, बुद्ध एवं कृतान्त हैं अतः दूसरों के नेता हैं ।