________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
“मैं खेदज्ञ पुरुष हूँ यावत् उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ । मैं इस प्रधान श्वेतकमल को उखाड़ कर ले आऊंगा इसी अभिप्राय से मैं कृतसंकल्प हो कर यहाँ आया हूँ ।" यों कह कर वह चौथा पुरुष भी पुष्करिणी में उतरा और ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया । वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फंस कर दुःखी हो गया । अब न तो वह इस पार का रहा, न उस पार का । इस प्रकार चौथे पुरुष का भी वही हाल हुआ ।
7
[६३८] इसके पश्चात् राग-द्वेषरहित, संसार - सागर के तीर यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा निर्दोष भिक्षापात्र से निर्वाह करने वाला साधु किसी दिशा अथवा विदिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस के तट पर खड़ा हो कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो अन्यन्त विशाल यावत् मनोहर है । और वहाँ वह भिक्षु उन चारों पुरुषों को भी देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चुके हैं, और उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके हैं । जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं । इसके पश्चात् उस भिक्षु ने उन चारों पुरुषों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा - अहो ! ये चारों व्यक्ति खेदज्ञ नहीं हैं, यावत् मार्ग की गति एवं पराक्रम से अनभिज्ञ । इसी कारण लोग समझने लगे कि 'हम लोग इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकाल कर ले जाएँगे, परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं ।" "मैं निर्दोष भिक्षाजीवी साधु हूँ, राग-द्वेष से रहित हूँ । मैं संसार सागर के पार जाने का इच्छुक हूँ, क्षेत्रज्ञ हूँ यावत् जिस मार्ग से चल कर साधक अपने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ हूँ । मैं इस उत्तम श्वेतकमल को निकालूंगा, इसी अभिप्राय से यहाँ आया हूँ ।" यों कह कर वह साधु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं करता, वह उस के तट पर खड़ा खड़ा ही आवाज देता है- " हे उत्तम श्वेतकमल ! वहाँ से उठकर आ जाओ, आ जाओ ! यों वह उत्तम पुण्डरीक उस पुष्करिणी से उठकर आ जाता है । [६३९] “आयुष्मान् श्रमणो ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त कहा है; इसका अर्थ जानना चाहिए ।" “हाँ, भदन्त !' कह कर साधु और साध्वी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना और नमस्कार करके भगवान् महावीर से कहते हैं- “आयुष्मन् श्रमण भगवान् ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ हम नहीं जानते ।” श्रमण भगवान् महावीर ने उन बहुत-से निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को कहा- 'आयुष्मान् श्रमण - श्रमणियो ! मैं इसका अर्थ बताता हूँ अर्थ स्पष्ट करता हूँ । पर्यायवाची शब्दों द्वारा उसे कहता हूँ, हेतु और दृष्टान्तों द्वारा हृदयगम कराता हूँ; अर्थ, हेतु और निमित्त सहित उस अर्थ को बार-बार बताता हूँ ।"
[ ६४०] अर्थ को मैं कहता हूँ- "आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मान कर इस लोक को पुष्करिणी कहा है । और हे आयुष्मान् श्रमणो ! कर्म को इस पुष्करिणी का कहा है । आयुष्मान् श्रमणो ! काम भोगों की पुष्करिणी का कीचड़ कहा है । मैंने अपनी दृष्टि से आर्य देशों के मनुष्यों और जनपदों को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमल कहा है । मैंने मन में निश्चित करके राजा को उस पुष्करिणी का एक महान् श्रेष्ठ स्वेतकमल कहा है । और मैंने अन्यतीर्थिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंसे हुए चार पुरुष बताया है । मैंने अपनी बुद्धि से चिन्तन करके धर्म को वह भिक्षु बताया है । मैंने सोचकर धर्मतीर्थ को
१९२