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सूत्रकृत - २/१/-/६३५
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मैं इस पुण्डरीक को उखाड़ कर ले आऊंगा, किन्तु यह पुण्डरीक इस तरह उखाड़ कर नहीं लाया जा सकता जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है ।"
“मैं खेदज्ञ पुरुष हूँ, कुशल हूँ, हिताहित विज्ञ हूँ, परिपक्वबुद्धिसम्पन्नप्रौढ़ हूँ, तथा मेघावी हूँ, मैं नादान बच्चा नहीं हूँ, पूर्वज आचरित मार्ग पर स्थित हूँ, उस पथ का ज्ञाता हूँ; उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता हूँ । मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाऊंगा, यों कह कर वह द्वितीय पुरुष उस पुष्करिणी में उतर गया । ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक जल और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया । इस तरह वह भी किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी प्राप्त न कर सका । यों वह न इस पार का रहा और न उस पार का रहा । वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस कर रह गया और दुःखी हो गया । यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है । [६३६] दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आ कर उस के किनारे खड़ा हो कर उस एक महान् श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त यावत् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है । वह वहां उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चुके और उस उत्तम श्वेतकमल को भी नहीं पा सके, तथा जो न इस पार के रहे और न उस पार के रहे, अपितु पुष्करिणी के अधबीच में अगाध कीचड़ में ही फंस कर दुःखी हो गए थे । इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए कहा- "अहो ! ये दोनों व्यक्ति खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ नहीं हैं, कुशल भी नहीं है, न पण्डित हैं यावत् जिस मार्ग पर चल कर जीव अभीष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं
ते । इसी कारण ये दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि हम इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाएंगे, परन्तु इस उत्तम श्वेतकमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना कि ये दोनों पुरुष मानते हैं ।"
“अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित, परिपक्वबुद्धिसम्पन्न, यावत् ज्ञाता हूँ I मैं इस उत्तम श्वेतकमल को बाहर निकाल कर ही रहूँगा, मैं यह संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ ।" यों कह कर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा । अतः वह तीसरा व्यक्ति भी वहीं कीचड़ में फंस गया, अत्यन्त दुःखी हो गया । न इस पार का रहा और न उस पार का । यह तीसरे पुरुष की कथा है ।
[ ६३७] तीसरे पुरुष के पश्चात् चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा हो कर उस एक महान् उत्तम श्वेतकमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त यावत् मनोहर है । तथा वह वहाँ उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से बहुत दूर हट चुके हैं और श्वेतकमल तक भी नहीं पहुंच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गए हैं । तदनन्तर उन तीनों पुरुषों के लिए उस चौथे पुरुष ने इस प्रकार कहा- 'अहो ! ये तीनों पुरुषो खेदज्ञ नहीं हैं, यावत् मार्ग की गतिविधि एवं पराक्रम के विशेषज्ञ नहीं है । इसी कारण ये लोग समझते हैं कि 'हम उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को उखाड़ कर ले आएंगे; किन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं ।